पृथ्वी तो पृथ्वी है
बहुरंगी सुन्दर सी
यहाँ सा स्वर्ग कहीं और
कभी देखा नहीं |
वैज्ञानिक जीते कल्पना में
नए प्रयोग करते
हल्का सा परिवर्तन
जब भी देखते अन्तरिक्ष में
महिमा मंडन उसका करते |
जब तक लोहा गर्म होता
चोट हतौड़े की सहता
उसके ठंडा होने पर
उसका अस्तित्व है कहीं भूल जाते |
आज तक इस धरती पर
कोई नया प्राणी
आया नहीं अजनवी सा
फिर कैसे कल्पना हो साकार |
किसी अन्य गृह पर
जीवन का होगा या
जीव रहते होंगे पृथ्वी की तरह
लगती है केवल कल्पना |
कल्पना की उड़ान भी
अच्छी लगती है
पर कुछ तो तथ्य हो
कभी नेत्रों को
झलक मिली हो इनकी |
पृथ्वी सा स्वर्ग
कभी न मिला
आज तक वहां
सारी कल्पना रहती
कुछ दिन चर्चा में |
फिर कोई नाम तक
नहीं लेता उनका
वे विस्मृत हो जातीं
यहीं की गलियों में |
मेरी एक ही बात
समझ में आई है
धरती से रमणीय
कोई गृह नहीं आज तक |
आशा
बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंThanks for comment
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएंसो तो है ! इस हरी हरी वसुंधरा से सुन्दर और कुछ नहीं ! कहीं बृह्माण्ड में होगा भी तो जिसे देखा ही नहीं उसको अपनी धरती से श्रेष्ठ कैसे मानें और क्यों मानें ! सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |