जब द्रढ़ता मन में न हो
खुद पर भरोसा हो केसे
जिस पर भी भरोसा किया
वही उस योग्य न निकला |
कितनी बार धोखा खाया
मन ने भी रोकना चाहा
कौन सत्य पर चलता
किस पर झूट का साया |
यही यदि समझ लिया होता
कभी मात न खाती
इस रंग बिरंगी दुनिया को
सरलता से पार कर पाती |
यही मेरी कमजोरी
है
अति विश्वास सब पर जल्दी से
चाहे हो अनजान और मिठबोला
सही गलत की पहचान न मुझको |
जितनी बार विश्वास किया
हर बार भरोसा टूट गया
अब मुझे किसी पर विश्वास नहीं
हरबार यही लगता है
कहीं यहाँ भी फरेव की दुकान न हो |
हो जाती हूँ असहज
किसी अजनवी पर भरोसा कर
अब जानना भी नहीं चाहती
उस अजनवी के बारे में
चाहे कितना भी विश्वास दिलाए |
आशा
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 07 अप्रैल 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंआभार सहित धन्यवाद मेरी रचना को आज के पांच लिंकों का आनंद में स्थान देने के लिए |
हमेशा की तरह सार्थक रचना, शुभकामनाओं सह।
जवाब देंहटाएंअपनी अंतर्वेदना को सहज-सरल शब्दों में बखूबी पिरोया आपने।
जवाब देंहटाएंकहा तो जाता है कि दूध का जला छाछ (भी)फूँक-फूँक कर पीता है।
ऐसी अच्छी रचना पठन में देने के लिए बहुत धन्यवाद आपका आकांक्षा जी।
सुप्रभात
हटाएंधन्यवाद जी आपका टिप्पणी के लिए |इसी प्रकार ब्लॉग पर आ कर मुझे प्रोत्साहित करते रहिये |
विश्वास तो करना ही पड़ता है, व्यथित न हों बस ईश्वर का नाम लें। नमन।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद विमल कुमार जी टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंसहज ही किसीपर विश्वास करना भी नहीं चाहिए ! सुन्दर अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |