समय कुसमय को न देखा
बिना सोचे अनर्गल बोलते रहे
अरे यह क्या हुआ ?
क्या किसी ने न बरजा |
क्या हो समकक्ष सभी के
कोई बड़े छोटे का ख्याल नहीं
उम्र का तनिक भी लिहाज नहीं
कभी ग्लानि भी नहीं होती |
क्या आत्मा भी जड़ हुई तुम्हारी
या किसी गुरू की शिक्षा भी न मिली
या संस्कारों में कमीं रह गई
किसी ने न रोका टोका |
तुमने मन को दुःख पहुंचाया
मुझे यह कहने में
असंतोष भी बहुत हुआ
लगा क्या तुम मेरे ही बेटे हो |
कल्पना न थी तुम
संस्कारों को भूल जाओगे
आधुनिकता के साथ अपने
चलन को भी तिलांजलि दोगे|
मुझे बहुत शर्म आई
तुम दूर हुए कैसे उनसे
अपने दिए संस्कारों को न भूल पाई
कहाँ रही कमी आज तक न सोच पाई |
आशा
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 26 अप्रैल 2022 को साझा की गयी है....
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आभार दिग्विजय जी मेरी रचना के चयन के लिए |
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-4-22) को "संस्कार तुम्हारे"(चर्चा अंक 4411) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
------------
कामिनी सिन्हा
आभार कामिनी जी मेरी रव्हाना के चयन के लिए |
हटाएंहर इंसान का व्यवहार उसकी सोच के अनुरूप होता है ! बचपन से मिले संस्कार कुछ ही समय तक साथ चलते हैं ! वक्त प्रतिकूल होने पर लोग उन्हें पल भर में तिलांजलि दे देते हैं !
जवाब देंहटाएंसंस्कार की बातें बच्चे बड़े होकर भूल जातें है और वक्त उन्हें याद दिलाता है तब देर बहुत हो जाती है।
हटाएंबच्चे संस्कार कुछ समय के लिए भले ही भुला दें पर यदि उन्हें बचपन में उनसे सींचा है तो जल्दी ही उन्हें अपनी भूल का अहसास हो जाता है, उन्हें चाहिए एक समझ भरा स्पर्श, और एक आश्वस्ति कि माता-पिता हर हाल में उनके साथ हैं
जवाब देंहटाएंयह प्रसंग जाने कितनी दुखती रगों को छूता होगा । और आपने जिस तरह मन की व्यथा को अभिव्यक्त किया है, बरबस आंखें नम हो जाती हैं । अभिनंदन ।
जवाब देंहटाएं