04 जून, 2022

वर्तमान मेरा


 

मेरी आस्था

 तुम्हारा वरद हस्त

यही पाया है मैंने 

बड़े प्रयत्नों से |

सफलता भी पाई है इसमें

किन्तु एक सीमा तक 

ब भी चाहा  वही पाया

मैंने बिना किसी बाधा के

फिर भी संतुष्टि नहीं मिल् पाई

न जाने कहाँ  कमी रही अरदास में |

मन को टटोला आत्ममंथन किया

फिर भी तुमसे दूरी रही

 यह हुआ कैसे

कोई सुराग न मिला

 सोच में डूबी रही

मन में विद्रूप हुआ 

कहाँ भूल हुई खोज न पाई |

यही उलझने 

मुझे सताती रहीं

 कोई निराकरण

 नहीं निकला |

मुझे तरसाता रहा 

रहने लगी उदास

 थकी थकी सी 

जीवन बेरंग हुआ |

अब चाह नहीं 

और जीने की

 मन बुझा बुझा सा रहा 

है यही वर्तमान मेरा |

आशा   

7 टिप्‍पणियां:

  1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभार कामिनी जी मेरी रचना की सूचना के लिए |

      हटाएं
  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (5-6-22) को "भक्ति को ना बदनाम करें"'(चर्चा अंक- 4452) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    ------------
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभार कामिनी जी मेरी रचना कीई सूचना के लिए |

      हटाएं
  3. सुन्दर रचना ! कभी कभी मन की दुविधा व्यक्ति को दोराहे पर ला खड़ा करती है लेकिन समय के साथ यह धुंध भी छँट जाती है !

    जवाब देंहटाएं

Your reply here: