मेरी आस्था
तुम्हारा वरद हस्त
यही पाया है मैंने
बड़े प्रयत्नों से |
सफलता भी पाई है इसमें
किन्तु एक सीमा तक
जब भी चाहा वही पाया
मैंने बिना किसी बाधा के
फिर भी संतुष्टि नहीं मिल् पाई
न जाने कहाँ कमी रही अरदास में |
मन को टटोला आत्ममंथन किया
फिर भी तुमसे दूरी रही
यह हुआ कैसे
कोई सुराग न मिला
सोच में डूबी रही
मन में विद्रूप हुआ
कहाँ भूल हुई खोज न पाई |
यही उलझने
मुझे सताती रहीं
कोई निराकरण
नहीं निकला |
मुझे तरसाता रहा
रहने लगी उदास
थकी थकी सी
जीवन बेरंग हुआ |
अब चाह नहीं
और जीने की
मन बुझा बुझा सा रहा
है यही वर्तमान मेरा |
आशा
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जवाब देंहटाएंआभार कामिनी जी मेरी रचना की सूचना के लिए |
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (5-6-22) को "भक्ति को ना बदनाम करें"'(चर्चा अंक- 4452) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
आभार कामिनी जी मेरी रचना कीई सूचना के लिए |
हटाएंसराहनीय प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना ! कभी कभी मन की दुविधा व्यक्ति को दोराहे पर ला खड़ा करती है लेकिन समय के साथ यह धुंध भी छँट जाती है !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर टिप्पणी
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