कभी कभी ख्यालों में आना
फिर कहीं गुम हो जाना
रात के अन्धकार में
मन को भाता तुम्हारे
मैं क्या करती |
खोजे से भीं न मिलना
करता है परेशान मुझे
कहीं जाने नहीं देता
परछाई सा चिपका रहता
मैं क्या करती |
कभी मेरे स्वप्नों में आना
वहां आने के लिए
कोई बहाना बनाना
करता है बाध्य तुम्हें
मैं क्या करती |
मन चाही बातें मनवाना
वहां अकेले ही बने रहना
किसी से बहस नहीं करना
सब पर हुकूमत चलाना
अच्छा
लगता है तुम्हें
मैं क्या करती |
मुझे प्यार है तुमसे
मन भाग रहा है वहां
नहीं मंजूर मुझे
किसी और का वजूद
नहीं होता सहन मुझे
मैं क्या करती |
आशा
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (23-07-2022) को चर्चा मंच "तृषित धरणी रो रही" (चर्चा अंक 4499) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Thanks for the information of my post
हटाएंबहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंवाह वाह ! अति सुन्दर अभिव्यक्ति ! बहुत बढ़िया !
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