मैंने जिन्दगी को जिया है
यथार्थ को भोगा है
कुछ नया नहीं किया है
अब न पूंछना मैंने क्या किया है |
जब छोटी थी घर घर खेलती थी
रोटी भाजी बनाती थी
मिठाई भी बना लेती थी
खेलती खाती मित्रों को बुलाती |
रेती का घर बनाती थी
आगे उसमें बाग़ लगाती
पर जब आपस में झगड़ते
घर को तोड़ फोड़ देते थे |
सारे पौधे उखाड़ देते थे
फिर भी नहीं समझते थे
नुक्सान किसका हुआ
किसकी महनत बेकार गई |
पर नहीं समझी थी अब भी नहीं समझी
यही समझ यदि पहले आती
बना बनाया घर न टूटता
हानि न झेलना पड़ती |
यही सब देखा है वर्तमान में
शहरों गावों में यहाँ वहां
अपने ही देश में
क्रोधित होने पर तोड़फोड़ होने लगती है |
आगजनी तो है आम बात
गुत्थम गुत्था भी होती है
जब बात बिगड़ती है
मार काट भी मच जाती है |
हानि किसकी होगी
यही समझ से परे है
आम जनता को ही
हानि पहुँचती है|
जान माल की हानि को
खुद ही सहन करना होता है
आए दिन होली जलती वाहनों की
कितनी मुश्किल से घर बसाया था |
वह आंसू भरी आँखों से
देखता ही रह जाता है
अपनी उजड़ती दुनिया को
पर शिकायत किससे करे |
मैंने भी यही सब देखा है भोगा है
जैसा देखा अनुकरण किया है
है यही एक उदाहरण
जिसे मैंने यथार्थ में जिया है |
आशा
इस रसहीन समय में किसी से शिकायत करना बेमानी है।
जवाब देंहटाएंयथार्थ बयां करती रचना
सादर
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिए |
सही कहा सुंदर रचना
हटाएंThanks for the comment
हटाएंकटु सत्य के दर्शन कराती उत्कृष्ट रचना ! बहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएं