25 जुलाई, 2022

मैंने यथार्थ को जिया है


                                                             मैंने जिन्दगी को जिया है 

यथार्थ को भोगा है 

 कुछ नया नहीं किया है 

अब न पूंछना मैंने क्या किया है |

जब   छोटी   थी घर घर  खेलती थी 

रोटी भाजी  बनाती थी

 मिठाई भी बना लेती थी

खेलती खाती मित्रों को बुलाती |

रेती का  घर बनाती थी 

आगे उसमें बाग़ लगाती 

पर जब आपस में झगड़ते 

 घर को तोड़ फोड़ देते थे |

सारे पौधे उखाड़ देते थे 

फिर भी नहीं समझते थे 

नुक्सान  किसका हुआ 

किसकी महनत बेकार गई |

पर  नहीं समझी  थी अब भी नहीं समझी 

 यही समझ यदि पहले आती 

बना बनाया  घर न टूटता 

 हानि  न झेलना पड़ती  |

यही सब   देखा  है  वर्तमान में 

  शहरों गावों में  यहाँ वहां 

अपने ही  देश में  

 क्रोधित होने पर तोड़फोड़ होने लगती है |

 आगजनी तो है आम बात 

गुत्थम गुत्था भी होती है 

 जब बात बिगड़ती है

 मार काट भी मच जाती है |

हानि  किसकी  होगी

 यही समझ से परे है  

आम जनता को  ही

हानि पहुँचती है|

जान माल की हानि को 

खुद ही सहन करना होता है 

 आए दिन  होली जलती वाहनों की 

कितनी मुश्किल से घर बसाया था |

वह आंसू भरी आँखों से

 देखता ही रह जाता है 

अपनी उजड़ती दुनिया को 

पर शिकायत किससे  करे |

मैंने भी यही सब देखा है भोगा है 

जैसा देखा अनुकरण किया है 

है यही  एक उदाहरण

जिसे  मैंने यथार्थ में जिया है |

आशा 


5 टिप्‍पणियां:

Your reply here: