06 जुलाई, 2022

दुविधा में हूँ


 

उतार चढ़ाव जीवन के

इतना कमजोर कर देते हैं

मन मस्तिष्क बेकल हो जाता है

क्या हो रहा समझ से परे है |

घटनाओं का अम्बार लगा है

ऊंठ किस करवट बैठेगा मालूम नहीं

क्या कभी जिन्दगी की गाड़ी

सीधी पटरियों पर चल पाएगी |

 यूं ही सडकों पर टप्पे खाता फिरूंगा

या कभी स्थाईत्व भी आएगा जीवन में

मेरे बेरंग जीवन में रंग कब भरेगा 

यह उथलपुथल कब होगी समाप्य |

अब मैं बैठा हूँ इन्तजार में

तुमसे क्षमा मांगूं या  कहने में चलूँ

  तुम्हारे हाथों की  कठपुतली बनूँ

या अपनी  जिम्मेंदारिया पूर्ण करूं |

न जाने समझ पाने में तुम्हें

कहाँ  भूल हुई मुझ से

तुम्हारे मन का सोच है कितना मैला

गहराई तक  डस रहा है मुझे |

कैसे समस्याओं का हो निदान

जब पहल ही नहीं की तुमने

ना ही कभी मुझे समझीं

फिर इतने दिनों का साथ

एक ही  पल में ही ठुकराया तुमने |

आशा

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

2 टिप्‍पणियां:

  1. मार्मिक रचना ! कभी कभी इंसान जीवन में ऐसे दोराहे पर आ खडा होता है कि सही रास्ता चुनने में बड़ी दुविधा हो जाती है ! बढ़िया अभिव्यक्ति !

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  2. सुप्रभात
    धन्यवाद टिप्पणी के लिए |

    जवाब देंहटाएं

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