कितनी बार सोच विचार कियी
सही गलत का
आकलन करना चाहा
पर किसी निराकरण पर न पहुंची
मन में
असंतोष लिए घूमती रही |
कितनी बार
तुमसे कहना चाहा
पूंछना भी चाहा
तुम्हारे मन में क्या चल रहा है
तुमसे भी सलाह लेनी चाही पर
तुमने भी साथ
न दिया मेरा |
अब मैं किस
का इतजार करूं
अपने विचारों
पर मोहर लगाने के लिए
जो मैं सोचती
हूँ क्या वह सही नहीं है
या जरूरत है
और मंथन की उनके |
कभी सोचा न
था इतनी उलझ जाऊंगी
अपने विचारों को रंग बिरंगे
शब्दों का लिवास पहना न पाऊँगी
न जाने क्या होगा अभी कुछ पक्का भी नहीं है |
हूँ अनिर्णय
की स्थिती में सुध बुध खो रही हूँ
बीच भवर में
डूब रही हूँ
अब तो जीवन
बोझ हुआ है
भवसागर से कैसे पार उतर पाऊँगी |
आशा
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-7-22) को "बदलते समय.....कच्चे रिश्ते...". (चर्चा अंक 4486) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
Thanks for the information of my post
हटाएंअनिर्णय की स्थिति बड़ी दुखदायी होती है व्यक्ति की सक्रियताको कुण्ठित कर देती है .
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंसुंदर काव्यमय प्रस्तुति के माध्यम से मन की उथल-पुथल को व्यक्त करने के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई। जीवन में ऐसे क्षण भी आते हैं। आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंदिल की उथल पुथल ही सब बैचनी की वजह है। सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंThanks for the comment ji
हटाएंशीर्षक की वर्तनी सुधार लें ! मन की संशयपूर्ण स्थिति की सशक्त अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sadhana
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