भावों की उत्तंग तरंगें
जब विशाल रूप लेतीं
मन के सारे तार छिड़ जाते
उन्हें शांत करने में |
पर कहीं कुछ बिखर जाता
किरच किरच हो जाता
कोई उसे समेंट नहीं पाता
अपनी बाहों में |
कितने भी जतन करता
मन का बोझ कम होने का
नाम ही न लेता
मचल जाता छोटे बालक सा |
यही प्रपंच शोभा न देता
एक परिपक्व् उम्र के व्यक्ति को
वह हँसी का पात्र बनता
जब महफिल सजती और
वह अपनी रचनाएं पढता |
वह सोचता लोग दाद दे रहे हैं
पर यहीं वह गलत होता
कवि कहलाने की लालसा
उसे अपनी कमियों तक
पहुँचने नहीं देतीं
जन मानस तो दाद की जगह
उपहास में व्यस्त रहता तालियाँ बजाने में |
वह कितनी ही बार सोचता
उसने क्या लिखा किस पर लिखा
पर थाह नहीं मिल पाती |
यहीं तो कमीं रह जाती
वह क्या सोचता
पर किससे कहता
सब समझ से परे होता |
आशा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (03-08-2022) को "नागपञ्चमी आज भी, श्रद्धा का आधार" (चर्चा अंक-4510) पर भी होगी।
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कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Thanks for the information of my post
जवाब देंहटाएंमैं इन पंक्तियों से जुड़ गया मानो ये मेरे ही हैं। हृदयस्पर्शी।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंखूबसूरती से मनोभावों को पिरोया गया है ,सरलता से कह दी गई बात
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंसार्थक चिंतन !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिए |
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