01 अगस्त, 2022

प्रकृति का आलम


 

भावों की उत्तंग तरंगें

जब विशाल  रूप लेतीं

मन के सारे तार छिड़ जाते

उन्हें शांत करने में |

पर कहीं कुछ बिखर जाता

किरच किरच हो जाता

कोई उसे समेंट  नहीं पाता

अपनी बाहों में |

कितने भी जतन करता 

मन का बोझ कम  होने का

नाम ही न लेता

मचल जाता छोटे बालक सा |

यही प्रपंच शोभा न देता

एक परिपक्व्  उम्र के व्यक्ति को

वह हँसी का पात्र बनता

जब महफिल सजती और  

वह अपनी रचनाएं पढता |

वह सोचता लोग दाद दे रहे हैं

पर यहीं वह गलत होता

कवि  कहलाने की लालसा

उसे अपनी कमियों तक

पहुँचने नहीं देतीं 

जन मानस तो दाद की जगह

उपहास में व्यस्त रहता तालियाँ बजाने में  |

वह कितनी ही  बार सोचता

उसने क्या लिखा किस पर लिखा 

पर थाह नहीं मिल पाती |

 यहीं तो कमीं रह जाती

वह  क्या सोचता

पर किससे  कहता

सब समझ से परे होता |

आशा

 


8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (03-08-2022) को   "नागपञ्चमी आज भी, श्रद्धा का आधार"  (चर्चा अंक-4510)    पर भी होगी।
    --
    कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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  2. मैं इन पंक्तियों से जुड़ गया मानो ये मेरे ही हैं। हृदयस्पर्शी।

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  3. खूबसूरती से मनोभावों को पिरोया गया है ,सरलता से कह दी गई बात

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