राखी निकली गहन उदासी में
घर था खाली खाली कोई न आया
आता भी कैसे अन्य देश का वासी हुआ
माँ थी जब धूम धाम से बड़े उत्साह से
सब त्यौहार मनाए जाते थे |
अब ना तो माँ रहीं नहीं भाई बहिन
हुए अपने अपने में व्यस्त सब
समय का किसी को भान न हुआ |
सारा दिन कटता उनके इन्तजार में
फिर भी बहिन का मन नहीं मानता
देखती रहती द्वार पर
जब भी दरवाजे पर आहाट होती
वह चौक जाती शायद भाई ने दी दस्तक |
फिर भी शगुन के कच्चे धागे
कलाई पर कैसे न बंधते
मन को संतोष मिल जाता है
कान्हां को राखी बांधकर ही |
आशा
भावपूर्ण सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंThanks for the comment for the post
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