कितनी बार सोचा समझा
कुछ सीखने की कोशिश की
पर मन पर नियंत्रण न रहा
हर बात में उत्श्रंखल हुआ |
किसी पर न जाने क्यूँ विश्वास न रहा
ना ही आत्मविश्वास रहा अपने पर
फूँक फूँक कर जब रखे कदम
मन का संबल कहीं गुम हो गया|
अब न जाने क्या होगा
मुझ में जीने की ललक भी
कहीं सुप्त हुई है अब क्या
करूं|
ना कहीं मन लगता मेरा
काट रही हूँ निरुद्देश्य जीवन के दिन
किसी से क्या कहूं हाल बेहाल हुआ है
मन का चैन
कहीं खोगया |
आशा सक्सेना
सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज सोमवार 17 अक्टूबर, 2022 को "पर्व अहोई-अष्टमी, व्रत-पूजन का पर्व" (चर्चा अंक-4584) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार आपका मेरी रचना को स्थान देने के लिए आज के अंक में |
जवाब देंहटाएंमन तो बेपेंदी का लोटा है इसके चक्कर में न ही पड़ें तो अच्छा है, आत्मा की शरण में ही चैन मिलता है
जवाब देंहटाएंजी सुन्दर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद दीपक जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंमन की अस्थिरता को दर्शाती ईमानदार अभिव्यक्ति !
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