वे प्यार भरी रातें
मनुहार से भरी बातें
मुझे याद रहती हैं
उन्माद भरी सौगातें |
जब मन को सम्हाला था अपने
कितना अवेरा था उसे बड़े कष्टों के बाद
अब कोई बाधा नहीं चाहती उस अवसाद के वाद |
न जाने क्यों कोई मुझे पनपने नहीं देता
उस हादसे के बाद
न जाने कैसी उस की शत्रुता ने जन्म लिया है |
नाही मैंरी कोई रुझान है कभी
ना तो अंध भक्ति की है
पर अवसाद ने ऐसा घेरा है मुझे
कैसे मुक्त हो पाउंगी उससे |
पिंजरे में बंद मैना हो कर रह गई हूँ
मुझे समझ न पाया कोई
प्रातः उठ कर जीवन को प्रवाह देती हूँ
श्याम तक थक कर चूर हो जाती हूँ |
मन फूटफूट कर रोने को मचलने लगता है
हार जाती हूँ जीना चाहती हूँ उस बीते कल में
मुझे ऐसा साथी चाहिए
जो मुझे
बहुत प्यार से अपनाए
कभी धोखा न दे अपनी बातों से
बात अपनी बड़े धीमें धीमें मनवाए |
फिर वहीं नजारा हो पहले जेसा
जो वाट देखते रहने को जी चाहता हो
फिर से देखने को मुझे उत्सुक रखता हो
अपने आप में संयत रखता हो |
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28.10.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4594 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबाग
मन की गति समझे न कोई ! बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंमन के उमड़ते निर्बाध भावों की मार्मिक अभिव्यक्ति प्रिय आशा जी।सादर 🙏
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