आज भोर का तारा टूटा
सुबह का स्वप्न भी देखा
किस बात पर ध्यान दूं
अपने को कैसे दूं सांत्वना
|
कोई कार्य तो ऐसा हो कि
मन में शंका न हो पाए
सब कुछ आसानी से हो
जीवन आगे बढ़ता जाए |
क्यों मेरे मन में हो शंका ?
जीवन जितना बीता
कोई कठिनाई तो नहीं आई
अबतक जिस का सहारा मिला
मैं क्यूँ न जान पाई |
क्या यही अज्ञानता हुई मेरी
मेरे लिए सोच का कारण बनी
जितनी उस से दूरी बनाने की
कोशिश की
वह मेरे पास खिचती आती गई |
मैं खुद को और उसको समझ न
पाया
न जाने क्यूँ खुद को उसके नजदीक पाया
यही हाल कैसे हुआ मेरा
न सोचा न ही जान पाया |
आशा सक्सेना
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 24 नवंबर 2022 को 'बचपन बीता इस गुलशन में' (चर्चा अंक 4620) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
आभार रविन्द्र जी इस रचना की सूचना के लिए |
हटाएंबहुत खूब ! सुन्दर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपका
हटाएंजीवन में यही होता है.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपका
हटाएंबहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपका
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