तुम्हारे सारे सपने बेमानी हुए
जब भी झाँका तुमने अपने विगत में 
जब  झूट या सच से हाथ मिलाया 
अपने को इन प्रश्नों में
उलझा पाया |
खुद न सोच सके इनका हश्र
क्या होगा 
इनमें फँस कर क्या होगा 
कभी खुद पर नाराज हुए और 
 तल्खी आई खुद के ही व्यवहार में |
यह अनिश्चितता तुम्हें सुख
से सोने न देती 
नाही कुछ अच्छा होने देती 
तुम घिरे रहते इस झंजावात
में 
पार न हो पाते इन सब की
उलझनों से |
तुमने क्या सोचा क्या चाहा 
जब तुम ही न निश्चित कर पाए
कौन करेगा कोशिश तुम्हारे
पास आने की 
तुम्हें जज्बातों से बाहर
निकालने की |
मेरे ख्याल से तुम हुए अब
लाइलाज 
किसी भी डाक्टर के बस के
नहीं 
यदि खुद को न सम्हाला अब भी
नतीजा  होगा घातक तुम्हारे लिए |
आशा सक्सेना 
 
 
बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया ! सुन्दर सृजन !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
हटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएं