शाम हुई महफिल सजी
दीपक जला रौशन किया
आधी रात तक कवितायेँ सुनाई
सुनाईं
जैसे जैसे रात गहराई
दीपक की बाती भी जली
पर उसे चैन कहाँ
तुम बिन महफिल सूनी दिखती
दीपक की लौ कभी तेज हो जाती
कभी धीमी
दीप शिखा उतनी ही उग्र हो बनी रहती
दीपक तले तो अंधकार रहता
पर
पूरा कक्ष रौशन करता
उसे इसकी खबर तक नही होती
कब वायु वेग ने प्रहार किया
बाती बुझी
जब बोलती चिड़िया भोर होने
की सूचना देती
वायु के झोंके से दीपक बुझने
के कगार पर होता
पर उसे यह भान न होता
भावनाओं में डूबी रहती अपनी पूरी क्षमता से
अचानक परिवर्तन आता
बाती बुझ जाती उसकी
शिखा जलती कुछ क्षण
महफिल का समापन होता आधी
रात के बाद
पर उसका मन होता उदास
वह दीप शिखा सी उग्र होती |
आशा सक्सेना
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ! बहुत बढ़िया रचना !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पनी के लिए |
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