कल्पनालोक के इस दौर में
कैसे दूर रहूँ उससे
सब ने समझाया भी इतना
कभी कहने में आई यही बात
मन को ना भाई कैसे |
कविता का कोई रूप नहीं होता
केवल भावनाएं ही होतीं उसमें
सुन्दर शब्दों से सजी है
मन में हिलोरे खा रही है |
प्यार से सजी हुई है
दिलों दीवार में घुमड़ा रही हैं
कभी नदिया सी बेखौफ बह रही हैं
अपनी राह से है लगाव इतना
आगे आने वाले राह नहीं भटकते |
यही मन को रहा एहसास
पर मुझे भय नहीं है
अपने ऊपर आत्मविश्वास है इतना
कभी पैर ना फिसले ताकत से रहे भर पूर
चंचल चपला सी बह रही है |
आशा सक्सेना
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