कल्पना के इस दौर में
कैसे दूर रहूँ उससे सब ने समझाया भी इतना
कभी कहने में आई यही बात
मन को ना भाई कैसे |
कविता का कोई रूप नहीं होता
केवल भावनाएं ही होतीं प्रवल
सुन्दर शब्दों से सजी कविता
मन में हिलोरे खा रही है |
प्यार से सजी हुई है
दिलों दीवार में घुमड़ा रही हैं
कभी नदिया सी बेखौफ बह रही हैं
अपनी राह से है लगाव इतना
आगे आने वाले राह नहीं भटकते |
यही मन को रहा एहसास
पर मुझे भय नहीं है
अपने ऊपर आत्मविश्वास है इतना
कभी पैर ना फिसले ताकत से रहे भर पूर
यही है अभिलाषा मेरी|
चंचल चपला सी नदिया
प्रकृती में पथ खोज रही है
देती है महत्व उसकी लहराती चाल को
दीखती है उन्मुक्त बहती नदिया जैसी
चार चाँद से जोड़े हैं नदियों के उन्मुक्त प्रवाह में|
आनंद से भर गई मैं प्रकृति के प्रागंन में
यही आशा थी मुझको अपनी सोच से
मुझे एक संबल मिला है आज के इस दौर मैं
जिसे पा कर मैं खुशियों से भर उठी हूँ
अपने विश्वास पर अडिग खडी हूँ मैं |
मुझे यह गुमान हुआ है कभी किसी ने प्यार ही
नहीं किया मुझको जब कि मैंने सब कुछ छोड़ा उनपर |
अब लगने लगा है मानों मेरा वजूद ही नहीं
जी रही हूँ एक बेजान गुडिया सी इस भव सागर में
कभी खुद का एहसास भीं ना होगा कल्पना के इस दौर में
आशा सक्सेना
बहुत सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
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