हिन्दी साहित्य की वरिष्ट प्रख्यात लोकप्रिय कवयित्री श्रीमती आशा लता सक्सेना के दूसरे नवीन संस्करण "अन्तः प्रवाह "का मैंने अवलोकन किया और आकंठ श्रीमती आशा लता जी की कविताओं में डूबता चला गया| साहित्य साधना में निरंतर रत कवयित्री श्रीमती सक्सेना के इस काव्य संकलन में ८३ कवितायेँ संकलित हैं |कविता का कोई मानक नहीं होता क्यों की अनुभूतियों की तरलता कवि मन की व्यापकता के अनुसार अपना रूप ग्रहण करती है |फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि रागात्मक अनुभूतियों का स्वतः प्रस्फुटन काव्य बन कर अवतरित होता है तथा अपने अर्थ -माधुरी से पाठकों को सम्मोहित करता है तो रचनाएँ और सार्थक हो जाती हैं |श्रीमती आशा लता सक्सेना जी की कविताओं पर उक्त उक्ति सहज ही चरितार्थ होती है |
अन्तः प्रवाह संग्रह में जो कवितायेँ संकलित हैं उनमें विचार बीज गहन है |वस्तुतः कवयित्री के मन में प्रकृति -प्रेम ,जीवन -समाज आदि से सम्बंधित अनेक प्रश्न उभरते हैं और उन प्रश्नों का उत्तर देने में कविता बना जाती है |
नए तेवर , नए आयाम व नए अहसास लिए इस संकलन की रचनाओं में शिल्प एवं काव्य की नवीनता के स्वयं जीवन के धनेरे अनुभव हैं जो मानव को एक नई सोच नई दिशा देते हैं ,कहीं छायावाद की सूक्ष्म
भावाभिव्यन्जना और कोमलता है तो कहीं जीवन की देखी भोगी हुई भयावहता विद्रूपताओं की चुभन |
वही प्रकृति में अभिराम स्थित है तो कहीं सामाजिक विसंगतियों की कुंठा है |कवितायेँ कुछ लघु आकार में हैं तो कुछ बड़ी |परिस्थितियाँ चाहे कितनी प्रतिकूल क्यूं न हों ,जीवन में संघर्ष क्यों न हो ,अवरोध भले ही हो पर इंसान की परिभाषा सतत प्रयत्नशील रहना है -
यह जिंदगी की शाम अजब सा सोच है
|कभी है होश कभी खामोश है |
यही आज के आदमी की हालत उसके आदमी होने की परिभाषा है |चिंतन के विविध रूप रचनाओं में देखने को मिले |आत्मपरक ,आध्यात्मिक ,समिष्टि का एक भाव बहुत कुछ कह जाता है |रोम -रोम में एक धडकन स्पंदन में किसी के रचे बसे होने का आभास करा जाता है |-
पंख लगा अपनी बाहों में
मन चाहे उड़ जाऊं मैं
सहज चुनूं अपनी मंजिल
झूलों पर पेंगबाधाओं मैं |
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मुझे याद है पिकनिक पर जाने का वह दिन
जल प्रपात निहारने का वह दिन
आसमान में झिलमिल करते तारे
हमें उस ओर खींच ले गए
रात में ठहरने की बजह बन गए
जाने कब रात हो गयी ----
मन जब मादक क्षणों में खो जाता है तभी दुःख सुख की लालसा तीव्र हो उठती है फिर निराशा का कुहासा ढेर लेता है आँखें छलक उठाती हैं जिन्हेंप्र्यास करने पर भी छिपाया नहीं जा सकता क्यूं कि आंसू भी तो किसी की धरोहर होते हैं -
मन बावरा खोज रहा ,घनी छाँव बरगद की
चाहत है उसमें, बेपनाह मोहब्बत की |
मेरे समीप आजाओ
मुझे समझाने का यत्न करो
मेरी भावनाओं से खेलते हो
बिना बात नाराज होते हो |
कवयित्री आशा लता की ये काव्य पंक्तियाँ गागर में सागर हैं| अंतर मन के तारों को स्पर्श कर लेती हैं ऐसी पंक्तियाँ |वही पीड़ा समष्टिगत पीड़ा की और उन्मुख हो जाती है |मन उन्हें एक सत्य मार्ग का दिगादर्शन कराना चाहता है |वे मनुष्य के जीवन की मान्यताएं सिद्धांत सम्वेदना सब को भूल कर बस अहंकार को बनाए रखना चाहते है उनमें संवेदना जगाना चाहते हैं -
आस्था के भंवर में फंस कर
हर इंसान घूमाता है
धूमता ही रह जाता है
निकलना भी चाहे अगर
नहीं मिलाती कोई डगर
वह बस घूमता है
घूमता ही जाता है |
होता नहीं आसान निकलना
आस्था के भंवर जाल से
उलझ कर रह जाता है
आस्थाके भंवर जाल में |
जीवन के कटु यथार्थ ,विकृतियाँ ,भयावह्ताएं ,सहन नहीं होतीं |बर्बरता ,अन्याय ,उत्पीडन ,मर्दन ,आह कहाँ ले जा रहा है हमारी संस्कृति को |अधर्म ,अनाचार को देख कर कवयित्री का मन आहात हो उठता है -
कानूनन अधिकार मिला
अपने विचार व्यक्त करने का
कलम उठाई लिखना चाहा
कारागार नजर आया
अब सोच रहा है
यह है कैसी स्वतंत्रता ?
अधिकार तो मिलते नहीं
कर्तव्य की है अपेक्षा |
जीवन की विषमताओं ,विद्रूपताओं को दूर करने की लालसा मन में लिए हुए एक सुन्दर जगत की संरचना करने का उद्देश्य आशा जी का है तभी उन्हें उन मूल्यों की तलाश है जिन्होंने हमारी संस्कृति का सुन्दर इतिहास गधा था |वही स्वर्णिम संस्कृति जिसमें सार्वजनिक कल्याण की भावना थी |जिसमें अपने लिए ना जी कर परमार्थ कल्याण के लिए जीवन समर्पित करने का भाव था |महानगरीय संस्कृति की झिलमिलाहट
कृत्रिमता से दूर एक ऐसे घर की स्मृति मन को झझकोर जाती है जहां निश्छल स्नेह था हरेक का सुख दुःख
अपना लगता था -
फैली उदासी आसपास
झरते आंसू अविराम
अफसोस है कुछ खोने का
अनचाहा धटित होने का |
कवि कर्म है समष्टि के लिए जीना और यही तथ्य कवयित्री आशा सक्सेना जी की रचनाओं में उभर कर आया है | एक ओर जीवन के यथार्थ चित्र, बिखराव ,भटकाव जहां हम एक दूसरे से अलग होते जा रहे हैं तो दूसरी ओर वार त्यौहार |कहाँ गए वे पर्व -त्यौहार जहां की इन्द्रधनुषी रंग बिखेर कर उनके आनंद सुंदरता में खो जाते थेभेद भाव अलगाव सब भूल जाते थे |एकता का सन्देश देते थे |आज भी मन चाहता है -
रंग रसिया चल खेलें फाग
होली का जमालें रंग
लठ्ठ मार होली खेलें
हो सके तो खुद को बचाले
मुखड़े पर जब लगा गुलाल
वह एक शब्द ना बोली
अनुराग भरा गुलाल लगा
उसे अपने गले लगाया
दूर हुए गीले शिकवे
वह प्रेम रंग में डूबी
अपने प्रियतम के संग
आज खेल रही होली |
इसी प्रकार दीपावली पर भी उनहोंने लिखा है -
टिमटिमाते तारे गगन में
अंधेरी रात अमावस की
दीपावली आई तम हरने
लाई सौगात खुशियों की ||
कवयित्री श्री मती आशा लता सक्सेना के इस काव्य संग्रह 'अंतःप्रवाह 'में जीवन की बहुरंगी भावनाएं बिखरी हुई हैं ,कहीं प्रणय की अभिलाषा तड़पन बेकली छटपटाहट है ,तो कहीं प्रकृति-सुंदरता की आभा |कहीं कुहासा निराशा तो कहीं हंसते मुस्कुराते फूल धरती का श्रृंगार करते हैं ,तो कहीं नारी की सवला बनने की आकांक्षा |जीवन की वास्तविकताओं को सहज रूप से अवगत कराता ,मानव को उसके उत्तरदायित्व का आभास कराता हुआ ,श्रीमती सक्सेना जी का यह काव्य संकलन दीप स्तम्भ की भाति जन मानस को आलौकित कर सकेगा |यह मेरा विश्वास है |मैं उन्हें इस सुन्दर कृति के लिए साधुवाद देता हूँ |
यह जिंदगी की शाम अजब सा सोच है
कभी है होश तो कभी खामोश है |
लेखक :-
डा.राम सिंह यादव
(जादौन)
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पत्रकार एवं सम्पादकीय सलाहकार -ऋषि मुनि
अध्यक्ष मध्यप्रदेश जन्रालिस्ट एसोशियेशन
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