19 दिसंबर, 2009

त्यौहार समभाव

राखी, ईद, दिवाली, होली, बैसाखी और ओनम ,
साथ मना कर रंग जमायें, खुशियों से आखें हों नम |
आओ हिलमिल साथ मनायें पोंगल और बड़ा दिन ,
हर त्यौहार हमारा अपना ,
हम अधूरे इन बिन |
सूना-सूना जीवन होगा और ज़िन्दगी बेरंग ,
झूठा मुखौटा धर्म का न होगा अनावृत इन बिन |
अनेकता में एकता का रहा यही इतिहास ,
राष्ट्रीय पर्व यदि ना होते ना होता विश्वास |
आस्थाएँ टूट जातीं व होता हमारा ह्रास ,
इसीलिए सब साथ मनायें ये सारे त्यौहार |
सारे पर्व भरे जीवन में एक नया उत्साह ,
अनेकता में एकता का बना रहे इतिहास |
नया नहीं कुछ करना है जीवन मे रंग भरना है ,
नित नये त्यौहार मनायें खुश हो सब संसार|
सब में समभाव ज़रूरी है ,
नहीं कोई उन्माद ज़रूरी है ,
सब में सदभाव ज़रूरी है ,
यही है आज की माँग ,
हम सब साथ मनायें ये सारे त्यौहार |

आशा

18 दिसंबर, 2009

मुक्तक

बस न केवल सड़क पर चलती है ,
आम आदमी के दिलों को जोड़ती है ,
कहीं कोई आये ,कहीं कोई जाये ,
वह तो मनोभावों को तोलती है |

आशा

16 दिसंबर, 2009

एक कहानी सूरज नारायण की

एक परिवार में रहते तो केवल तीन सदस्य थे ,पर महिलाओं में आपस में बिल्कुल नहीं बनती थी |सरे दिन
आपस में झगडती रहतीथी । घर में सारे दिन की कलह से सूरज नारायण बहुत तंग आ चुका था |न तो घर
में कोईबरकत रह गई थी और न ही कोई रौनक |
यदि कोई अतिथि आता ,सास बहू के व्यबहार से वह भी दुखी होकर जाता | धीरे धीरे घर के वातावरण
से उकता कर वह घर से बाहर अधिक रहने लगा |जब इतने से भी बात नहीं बनी ,एक दिन शान्ति की तलाश
में सूरज ने घर छोड़ दिया |
इधर पहले तो कोई बात न हुई पर जब वह नहीं आया तो सास बहू ने उसकी तलाश शुरू की |सास भानुमती
एक जानकर के पास गयी व अपने पुत्र की बापसी का उपाय पूंछा | बहू ने भी अपने पति को पाने के उपाय
अप्नी सहेलियों से पूछे|
सब लोगों से चर्चा करने पर उन्होंने पाया की यदि घर का अशान्त वातावरण,गंदगी व आपसी तालमेल का
अभाव रहे तो कोई भी वहां नहीं रहना चाहता , चाहे पति ही क्यूँ न हो |
दूसरे ही दिन सास भानुमती ने अपनी बहू सुमेधा को अपने पास बुलाया |लोगों द्वारा दिए गये सुझावों की
जानकारी उसे दी |पति के घर छोड़ देने से परेशान सुमेधा ने भी हथियार दल दिए व सास का कहना मानने लगी |
अब घर में सभी कार्य सुचारू रूप से होने लगे घर की साफ सफाई देखने योग्य थी |यदि कोई आता तो उसे
ससम्मान बैठाया जाता |आदर से जलपान कराया जाता तथा यथोचित भेट ,उपहार आदि देकर विदा किया जाता | धीरे धीरे सभी बाते सूरज तक पहुचने लगी |उसने माँ व सुमेधा की परीक्षा लेने के लिए एक कोढ़ी का वेश
धरण किया और अपने घर जाकर दरवाजा खटखटाया | जैसे ही दरवाजा खुला सुमेधा को अपने सामने पाया |
सुमेधा उसे न पहचान सकी |फिरभी वह व भानुमती उसकी सेवा करने लगी|आदर से एक पाट पर बैठकर
उसके पैर धुलाए , भोजन करवाया व पान दिया | भोजन के बाद सूरज ने सोना चाहा और सूरज नारायण के बिस्तर पर सोने की इच्छा जाहिर की |सास ने खा बुजुर्ग है सोजानेदो |सुमेधा ने उसे सोजाने दिया |
पर सूरज ने एकाएक उसका हाथ पकड़ा व कहा मई सूरज नारायण हूँ |इस पर सुमेधा ने कहा "मेरे
पति तो इस करवे की टोटी में से निकल सकते है ,यदि आप निकल जाओ तभी मई आपको अपना पति मानू"
सूरज ने बड़ी सरलता से करवे की टोंटी से निकल कर दिखा दिया व अपने असली रूप मे आगये |
अब घर का माहोल बदल गया व घर फिरसे खुश हाल होगया |

शिक्षक से

जीवन से होकर हताश
पलायन का है क्यों विचार
बन कर तुम  नींव का पत्थर
दो ज्ञान हमें नव जीवन का |
आलस्य को त्याग कर
सुस्वप्न को साकार कर
भावी वृक्ष को साकार कर
दो ज्ञान हमें निज संबल का |
समय की नब्ज को पहचान 
सत्य को समाज में उभर कर
तंग घेरों से उसे निकाल कर
दो ज्ञान हमें नवचेतन का|

आशा

14 दिसंबर, 2009

बरसात


हरी भरी वादी में
लगी ज़ोर की आग
मन में सोचा
जाने होगा क्या हाल ।
फिर ज़ोर से चली हवा
हुआ आसमान स्याह
उमड़ घुमड़ बादल बरसा
सरसा सब संसार |
बरस-बरस जब बादल हुआ उदास
मैंने जब देखा तब पाया
पानी जम कर
बर्फ बन गया |
ओला बन कर
झर-झर टपका
पृथ्वी की गोद भरी उसने
ममता से मन
पिघल-पिघल कर
पानी पानी पुनः हो गया |
काले भूरे रंग सुनहरे
कितने रंग सजाये नभ ने ।
उगते सूरज की किरणें
बुनने लगीं सुनहरे सपने
सारा अम्बर
पुनः हुआ सुनहरा
जीवन को जीवन्त कर गया !

आशा

09 दिसंबर, 2009

ज़िन्दगी

यह ज़िन्दगी की शाम
अजब सा सोच है
कभी है होश
कभी खामोश है |
कभी थे स्वाद के चटकारे
चमकती आँखों के नज़ारे
पर सब खो गये गुम हो गये
खामोश फ़िजाओं में हम खो गये |
कभी था केनवास रंगीन
जो अब बेरंग है
मधुर गीतों का स्वर
बना अब शोर है
पर विचार श्रंखला में
ना कोई रोक है
और ना गत्यावरोध है |
हाथों में था जो दम
अब वे कमजोर हैं
चलना हुआ दूभर
बैसाखी की जरूरत और है
अपनों का है आलम यह
अधिकांश पलायन कर गये
बचे  थे जो
वो कर अवहेलना
निकल गये
और हम बीते कल का
फ़साना बन कर रह गये |

आशा

07 दिसंबर, 2009

अतीत


चुकती ज़िन्दगी की अन्तिम किरण
सुलगती झुलसती तीखी चुभन
पर नयनों में साकार
सपनों का मोह जाल
दिला गया याद मुझे
बीते हुए कल की |
यह पीले सूखे बाल सुमन
श्रम से क्लांत चले उन्मन
इस कृष्ण की धरा पर
नीर क्षीर बिन बचपन
दिला गया याद मुझे
उजड़े हुए वैभव की |
नव यौवन स्वर की रुनझुन
बदला क्रन्दन में स्वर सुन
यह दग्ध ह्रदय
जलती होली सा आभास
दिला गया याद मुझे
होते हुए जौहर की |
कहाँ गया बीता वैभव
कहाँ गया अद्भुत गौरव ?
क्यों सूनी है अमराई ?
कोई राधा वहाँ नहीं आई
क्यों देश खोखला हुआ आज ?
इन सब का उत्तर कहाँ आज ?
केवल प्रश्नों का अम्बार
दिला गया आभास मुझे
रीतते भारत की |

आशा