मन चंचल है ,
नहीं कुछ करने देता ,
तब सफलता हाथों से ,
कोसों दूर छिटक जाती है ,
उस चंचल पर नहीं नियंत्रण ,
इधर उधर भटकता है ,
और अधिक निष्क्रिय बनाता है ,
भटकाव यह मन का  ,
नहीं कहीं का छोड़ेगा ,
बेचैनी बढ़ती जायेगी ,
अंतर मन झकझोरेगा ,
क्या पर्वत पर क्या सागर में ,
या फिर देव स्थान में ,
मिले यदि न शांति तो  ,
क्या रखा है संसार में ,
साधन बहुत पर
जतन ना किया तब ,
यह जीवन व्यर्थ अभिमान है
मन चंचल यदि बाँध ना पाए ,
सकल कर्म निष्प्राण है |
आशा
30 जनवरी, 2010
27 जनवरी, 2010
रिश्ते
जीवन सरल नहीं होता
हर कोई सफल नहीं होता
यदि किताबों से बाहर झाँका होता
अपने रिश्तों को आँका होता
कठिन घड़ी हो जाती पार
जीवन खुश हाल रहा होता |
पहले भी सब रहते थे
दुःख सुख भी होते रहते थे
इस समाज के नियम कड़े थे
फिर भी जीवन अधिक सफल थे |
सुख दुःख का साँझा होने से
कभी अवसाद नहीं होता था
जीवन जीना अधिक सहज था
पर आज जीना हुआ दूभर |
कभी सोचा है कारण क्या
हम रिश्तों को भी न समझ पाए
केवल अपने में रहे खोये
संवेदनायें मरने लगीं
और अधिक अकेले होने लगे |
रिश्तों की डोर होती नाज़ुक
अधिक खींच न सह पाती
यदि समझ न पाए कोई
रिश्तों को बिखरा जाती |
मन पीड़ा से भर उठता
कोई छोर नजर नहीं आता
ग्रहण यदि लग जाये
घनघोर अँधेरा छा जाता |
जिसने रिश्तों को समझा
गैरों को भी अपनाया
वही रहा सफल जीवन में
मिलनसार वह कहलाया |
आशा
अपने रिश्तों को आँका होता
कठिन घड़ी हो जाती पार
जीवन खुश हाल रहा होता |
पहले भी सब रहते थे
दुःख सुख भी होते रहते थे
इस समाज के नियम कड़े थे
फिर भी जीवन अधिक सफल थे |
सुख दुःख का साँझा होने से
कभी अवसाद नहीं होता था
जीवन जीना अधिक सहज था
पर आज जीना हुआ दूभर |
कभी सोचा है कारण क्या
हम रिश्तों को भी न समझ पाए
केवल अपने में रहे खोये
संवेदनायें मरने लगीं
और अधिक अकेले होने लगे |
रिश्तों की डोर होती नाज़ुक
अधिक खींच न सह पाती
यदि समझ न पाए कोई
रिश्तों को बिखरा जाती |
मन पीड़ा से भर उठता
कोई छोर नजर नहीं आता
ग्रहण यदि लग जाये
घनघोर अँधेरा छा जाता |
जिसने रिश्तों को समझा
गैरों को भी अपनाया
वही रहा सफल जीवन में
मिलनसार वह कहलाया |
आशा
26 जनवरी, 2010
मुमताज़ की तलाश...
बात बहुत पुरानी है, पर आज भी सोचने पर हसी आ ही जाती है...
कॉलेज का वार्षिकोत्सव होने को था।श्री अवस्थी ने एक एकांकी लिखा और उसके मंचन हेतु उपयुक्त पत्रों की खोज प्रारंभ की।सभी महत्त्वपूर्ण और प्रमुख भूमिका करना चाहते थे।लड़कियों में भी चर्चा ज़ोरों पर थी।अलग अलग व्यक्तित्व वाली लड़कियों में मुमताज़ की भूमिका पाने की होड़ लगी हुई थी। सकारण अपना अपना पक्ष रख कर उस किरदार में अपने को खोजने में लगी हुई थीं।
साँवली सलोनी राधिका थी तो थोड़ी मोती, पर शायद अपने को सबसे अधिक भावप्रवण समझती थी। वह बोली, "ये रोल तो मुझे ही मिलना चाहिए। जैसे ही मैं इन संवादों को बोलूंगी, तो सब पर छा जाऊंगी।" चंद्रा उसके बड़बोलेपन को सहन नहीं कर सकी और उसने पलट वार किया, "जानती हो, मुझसे सुन्दर पूरे कॉलेज में कोई नहीं है। मुमताज़ तो सुन्दरता की मिसाल थी। अतः इस पात्र को निभाने के लिए मैं पूर्ण रूप से अधिकारी हूँ।"
शीबा कैसे चुप रह जाती? बोली, "वाह! मैं ही मुमताज़ का किरदार निभा पाऊंगी। जानती हो, मुझसे अच्छी उर्दू तुम में से किसी को नहीं आती। यदि संवाद सही उच्चारणों के साथ न बोले जाएँ तो क्या मज़ा?"
राधिका तीखी आवाज़ मैं बोली, "ज़रा अपनी सूरत तोह देखो! क्या हिरोइन ऐसी काली कलूटी होती हैं?!"
सुनते ही शीबा उबल पड़ी, "तुम क्या हो, पहले अपने को आईने में निहारो। बिल्कुल मुर्रा भैंस नज़र आती हो।"
"अजी, बिना बात की बहस से क्या लाभ होगा? देख लेना, सर तो मुझे ही यह रोल देंगे। मैं सुन्दर भी हूँ और... प्यारी भी।", मोना ने अपना मत जताया।
"बस बस। रहने भी दो। ड्रामे में हकले तक्लों का कोई काम नहीं होता। हाँ, यदि किसी हकले का कोई रोल होता, to शायद तुम धक् भी जातीं।", मानसी हाँथ नचाते हुई बोली।
इसी तरह आपस में हुज्जत होने लगी और शोर कक्ष के बाहर तक सुनाई देने लगा।बाहर घूम रहे लड़के भी कान लगाकर जानने की कोशिश में लग गये की आखिर मांजरा क्या है?
इस व्यर्थ की बहस की परिणीती देखने को मिली सांस्कृतिक प्रोग्राम में।
पर्दा उठा और हास्य प्रहसन "मुमताज़ की तलाश" की शुरुवात हुई।
एक भारी भरकम प्रोफेस्सर मंच पर अवतरित हुए। वह अपने नाटक की रूप रेखा बताने लगे। फिर आयीं भिन्न भिन्न प्रकार की नायिकाएं और अपना अपना पक्ष रखने लगीं मुमताज़ के पात्र के लिए।
फिर पूरा मंच एक अपूर्व अखाड़े में परिवर्तित हो गया और बेचारे प्रोफेस्सर साहब सिर पकड़कर बैठ गये। उनके मुख से निकला, "हाय!!! कहाँ से खोजूं मुमताज़ को?! यहाँ तो कई कई मुमताज़ हैं!"
और पटाक्षेप हो गया।
कॉलेज का वार्षिकोत्सव होने को था।श्री अवस्थी ने एक एकांकी लिखा और उसके मंचन हेतु उपयुक्त पत्रों की खोज प्रारंभ की।सभी महत्त्वपूर्ण और प्रमुख भूमिका करना चाहते थे।लड़कियों में भी चर्चा ज़ोरों पर थी।अलग अलग व्यक्तित्व वाली लड़कियों में मुमताज़ की भूमिका पाने की होड़ लगी हुई थी। सकारण अपना अपना पक्ष रख कर उस किरदार में अपने को खोजने में लगी हुई थीं।
साँवली सलोनी राधिका थी तो थोड़ी मोती, पर शायद अपने को सबसे अधिक भावप्रवण समझती थी। वह बोली, "ये रोल तो मुझे ही मिलना चाहिए। जैसे ही मैं इन संवादों को बोलूंगी, तो सब पर छा जाऊंगी।" चंद्रा उसके बड़बोलेपन को सहन नहीं कर सकी और उसने पलट वार किया, "जानती हो, मुझसे सुन्दर पूरे कॉलेज में कोई नहीं है। मुमताज़ तो सुन्दरता की मिसाल थी। अतः इस पात्र को निभाने के लिए मैं पूर्ण रूप से अधिकारी हूँ।"
शीबा कैसे चुप रह जाती? बोली, "वाह! मैं ही मुमताज़ का किरदार निभा पाऊंगी। जानती हो, मुझसे अच्छी उर्दू तुम में से किसी को नहीं आती। यदि संवाद सही उच्चारणों के साथ न बोले जाएँ तो क्या मज़ा?"
राधिका तीखी आवाज़ मैं बोली, "ज़रा अपनी सूरत तोह देखो! क्या हिरोइन ऐसी काली कलूटी होती हैं?!"
सुनते ही शीबा उबल पड़ी, "तुम क्या हो, पहले अपने को आईने में निहारो। बिल्कुल मुर्रा भैंस नज़र आती हो।"
"अजी, बिना बात की बहस से क्या लाभ होगा? देख लेना, सर तो मुझे ही यह रोल देंगे। मैं सुन्दर भी हूँ और... प्यारी भी।", मोना ने अपना मत जताया।
"बस बस। रहने भी दो। ड्रामे में हकले तक्लों का कोई काम नहीं होता। हाँ, यदि किसी हकले का कोई रोल होता, to शायद तुम धक् भी जातीं।", मानसी हाँथ नचाते हुई बोली।
इसी तरह आपस में हुज्जत होने लगी और शोर कक्ष के बाहर तक सुनाई देने लगा।बाहर घूम रहे लड़के भी कान लगाकर जानने की कोशिश में लग गये की आखिर मांजरा क्या है?
इस व्यर्थ की बहस की परिणीती देखने को मिली सांस्कृतिक प्रोग्राम में।
पर्दा उठा और हास्य प्रहसन "मुमताज़ की तलाश" की शुरुवात हुई।
एक भारी भरकम प्रोफेस्सर मंच पर अवतरित हुए। वह अपने नाटक की रूप रेखा बताने लगे। फिर आयीं भिन्न भिन्न प्रकार की नायिकाएं और अपना अपना पक्ष रखने लगीं मुमताज़ के पात्र के लिए।
फिर पूरा मंच एक अपूर्व अखाड़े में परिवर्तित हो गया और बेचारे प्रोफेस्सर साहब सिर पकड़कर बैठ गये। उनके मुख से निकला, "हाय!!! कहाँ से खोजूं मुमताज़ को?! यहाँ तो कई कई मुमताज़ हैं!"
और पटाक्षेप हो गया।
24 जनवरी, 2010
मन का सुख
पंख लगा अपनी बाँहों में
मन चाहे उड़ जाऊँ मैं
सहज चुनूँ अपनी मंजिल
झूलों पर पेंग बढ़ाऊँ मैं|
भाँति-भाँति के सपनों में
चुन-चुन कर प्यारे रंग भरूँ
हरा रंग ले सब पर डालूँ
हरियाली सी छा जाऊँ मैं |
प्यारे-प्यारे फूल चुनूँ
गुलदस्ता एक बनाऊँ मैं
अनेकता में एकता का
सच्चा रूप दिखाऊँ मैं |
जब जी चाहे उसको देखें
खुशबू से मन उनका महके
नन्हों की वह ख़ुशी देख कर
ममता से दुलराऊँ मैं|
जात पाँत और रंग भेद
से दूर बहुत वे सरल सहज
और निश्चछल निर्मल
उन पर अपना स्नेह लुटाऊँ
मन का सुख पा जाऊँ मैं |
बच्चों में मैं बच्चा बन कर
सब से नेह बढ़ाऊँ मैं
खुले व्योम के उस कोने में
अपनी मंज़िल पाऊँ मैं |
पंख लगा अपनी बाँहों में
एक परी बन जाऊँ मैं
उनको सदा विहँसता देखूँ
सारे सुख पा जाऊँ मैं |
आशा
भाँति-भाँति के सपनों में
चुन-चुन कर प्यारे रंग भरूँ
हरा रंग ले सब पर डालूँ
हरियाली सी छा जाऊँ मैं |
प्यारे-प्यारे फूल चुनूँ
गुलदस्ता एक बनाऊँ मैं
अनेकता में एकता का
सच्चा रूप दिखाऊँ मैं |
जब जी चाहे उसको देखें
खुशबू से मन उनका महके
नन्हों की वह ख़ुशी देख कर
ममता से दुलराऊँ मैं|
जात पाँत और रंग भेद
से दूर बहुत वे सरल सहज
और निश्चछल निर्मल
उन पर अपना स्नेह लुटाऊँ
मन का सुख पा जाऊँ मैं |
बच्चों में मैं बच्चा बन कर
सब से नेह बढ़ाऊँ मैं
खुले व्योम के उस कोने में
अपनी मंज़िल पाऊँ मैं |
पंख लगा अपनी बाँहों में
एक परी बन जाऊँ मैं
उनको सदा विहँसता देखूँ
सारे सुख पा जाऊँ मैं |
आशा
23 जनवरी, 2010
कर्त्तव्य बोध
कितने दिन बीत गये अब तो ,
भारत को आज़ाद हुए ,
फिर भी हम न समझ पाये ,
कि क्या कर्तव्य हमारे हैं ,
अधिकार सभी चाहे हमने ,
जिस हद तक जा सके गये ,
रोज-रोज बसों को तोड़ा ,
और चक्का जाम किया,
लाठी खाई, घूँसे खाये ,
पर अपना अधिकार नहीं छोड़ा ,
नेता हमने ऐसे खोजे ,
जो खुद को भी न समझ पाये ,
लोक सभा में जूते चप्पल ,
उनसे से भी न वे बच पाये ,
माइक अक्सर टूटा करते ,
व्यवधान सदा ही होते हैं ,
जब आता प्रश्न अधिकारों का ,
सभी एक जुट होते हैं ,
जब जब यह सब देखा हमने ,
शर्मसार हम होने लगे ,
कैसे नेता चुने गए हैं ,
यह प्रश्न मन में उठने लगे ,
बच्चे इससे क्या पायेंगे ,
केवल अधिकार ही जतालायेंगे ,
जब कर्तव्य सामने होगा ,
उससे वे बचना चाहेंगे ,
अधिकारों कि सूची लम्बी ,
चाहे जैसे उनको पायें ,
कर्तव्य अगर कोई हो उनका ,
उसे सदा ही दूर भगायें ,
आज तक हम विकासशील हैं ,
विकसित देशों से दूर बहुत ,
नव स्वतंत्र देशों से भी पिछड़े ,
हम जहाँ से चले थे वहीं अटके ,
फिर भी कर्तव्य बोध से बचते रहे ,
अपना सोच न बदल पाये ,
हम में से सबने यदि ,
एक कर्तव्य भी चुना होता
हम भी विकसित हो जाते ,
भारत विकसित देश कहाता |
आशा
भारत को आज़ाद हुए ,
फिर भी हम न समझ पाये ,
कि क्या कर्तव्य हमारे हैं ,
अधिकार सभी चाहे हमने ,
जिस हद तक जा सके गये ,
रोज-रोज बसों को तोड़ा ,
और चक्का जाम किया,
लाठी खाई, घूँसे खाये ,
पर अपना अधिकार नहीं छोड़ा ,
नेता हमने ऐसे खोजे ,
जो खुद को भी न समझ पाये ,
लोक सभा में जूते चप्पल ,
उनसे से भी न वे बच पाये ,
माइक अक्सर टूटा करते ,
व्यवधान सदा ही होते हैं ,
जब आता प्रश्न अधिकारों का ,
सभी एक जुट होते हैं ,
जब जब यह सब देखा हमने ,
शर्मसार हम होने लगे ,
कैसे नेता चुने गए हैं ,
यह प्रश्न मन में उठने लगे ,
बच्चे इससे क्या पायेंगे ,
केवल अधिकार ही जतालायेंगे ,
जब कर्तव्य सामने होगा ,
उससे वे बचना चाहेंगे ,
अधिकारों कि सूची लम्बी ,
चाहे जैसे उनको पायें ,
कर्तव्य अगर कोई हो उनका ,
उसे सदा ही दूर भगायें ,
आज तक हम विकासशील हैं ,
विकसित देशों से दूर बहुत ,
नव स्वतंत्र देशों से भी पिछड़े ,
हम जहाँ से चले थे वहीं अटके ,
फिर भी कर्तव्य बोध से बचते रहे ,
अपना सोच न बदल पाये ,
हम में से सबने यदि ,
एक कर्तव्य भी चुना होता
हम भी विकसित हो जाते ,
भारत विकसित देश कहाता |
आशा
20 जनवरी, 2010
आत्म दग्धा
माँ के बिना बीता बचपन 
केवल रहा पिता का साया  
बाबा को डर लगता था 
कैसे बड़ी सुमन होगी
 चिंता वह करता था 
 सोच कर हो  व्यथित  अक्सर दुखी हो जाता था !
कैसे हुआ अजब संजोग 
बड़ी बुआ के कहने से 
बूढ़े से मेरा ब्याह रचाया 
वृद्ध पति रूखा व्यवहार 
न कोई ममता  न कोई माया 
जलती रोटी देख तवे पर
उसको बहुत गुस्सा आया 
जलती लकड़ी से मुझे जलाया !
तब तन तो मेरा झुलसा ही  
मन ने भी हाहाकार मचाया 
मरना भी स्वीकार नहीं था 
जीवन भी जीना ना चाहा 
मरने जीने की उलझन ने 
मुझे अधिक बिंदास बनाया !
जब बड़ी हुई थोड़ी मैं 
 तन भी भटका मन भी अटका 
चाहा साथ किसी ऐसे का 
हाथ पकड़ जो साथ ले चले !
फिर से  मैंने धोखा खाया 
बिन ब्याही माँ बनी जब  
इसी समाज ने ठुकराया !
कुछ समय जब बीत गया 
फूट गया मन का छाला 
जैसे तैसे शुरू किया जीवन 
एक और से ब्याह रचाया !
ज़िन्दगी फिर पटरी पर आई 
मैंने  पत्नी धर्म निभाया 
एक दिवस वह गया काम पर 
 मेरी सौतन ले आया !
मन विद्रूप से भर-भर आया 
नफरत ने मन में पैर जमाया 
अब खुद ही खुद से लड़ती हूँ 
क्या मै ही गलती करती हूँ !
क्या मै ही गलती करती हूँ !
वह सौतन रास नहीं आई 
मुझको फूटी आँख नही भाई 
बालबाल फिर कर्ज में डूबी 
घर चलाना  कठिन हो गया 
वह कायर घर से दूर हो गया  !
कैसे पालूँ कैसे पोसूँ 
इन छोटे-छोटे बच्चों को
कैसे घर का कर्ज उतारूँ 
नहीं राह कोई दीखती 
बढ़े कर्ज और भूखे बच्चे 
सारे धागे लगने लगे कच्चे !
ऐसे में इक ठोला आया 
उसने यह अहसास दिलाया 
बहुत सहज है , बहुत सरल है
थोड़ा है जो क़र्ज उतर ही जायेगा 
ठोले से मैंने प्यार बढ़ाया 
फिर से मैंने धोखा खाया 
वह तो बड़ा सयाना निकला 
भँवर जाल में मुझे फँसाया 
उसने मेरा चेक भुनाया !
अब तिल-तिल कर मैं मरती हूँ 
खुद ही से नफरत करती हूँ 
पर मन के भीतर छुपी सुमन 
अक्सर यह प्रश्न उठाती है 
मैंने क्या यह  गलत किया 
और मेरी क्या गलती है ?
जिसने चाहा मुझको लूटा 
मेरा जीवन बर्बाद किया !
वे सब तो दूध के धुले रहे 
बस मैं ही हर क्षण पिसती हूँ 
जब भी  जिधर से निकलती हूँ 
मुझ पर उँगली  उठती है
हर पल के ताने अनजाने
मुझ में नफरत भरते हैं !
मुझ में नफरत भरते हैं !
आशा
18 जनवरी, 2010
एक दुलहन
वह सकुचाती और शरमाती ,
धीमे-धीमे कदम बढ़ाती ,
पीले हरेगलीचे पर जब ,
पड़ते महावरी कदम उसके,
लगती वह वीर बहूटी सी ,
वह रूकती कभी ठिठक जाती ,
दूधिया रोशनी जब पड़ती उस पर ,
अपने में ही सिमट जाती ,
तब वह लगती वीर बहूटी सी ,
झुकी-झुकी प्यारी चितवन ,
उसको और विशिष्ट बनाती ,
मुस्कान कभी होंठों पर आती ,
या सकुचा कर वह रह जाती ,
लगती वह वीर बहूटी सी ,
झीना सा अवगुंठन उसका ,
जिसमें से झाँका उसका रूप ,
लाल रंग की साड़ी उसकी ,
दुगना करती रूप अनूप ,
जैसे ही कुछ हलचल होती ,
वह छुईमुई सी हो जाती ,
तब मुझे अविराम कहीं ,
वीर बहूटी याद आती !
आशा
धीमे-धीमे कदम बढ़ाती ,
पीले हरेगलीचे पर जब ,
पड़ते महावरी कदम उसके,
लगती वह वीर बहूटी सी ,
वह रूकती कभी ठिठक जाती ,
दूधिया रोशनी जब पड़ती उस पर ,
अपने में ही सिमट जाती ,
तब वह लगती वीर बहूटी सी ,
झुकी-झुकी प्यारी चितवन ,
उसको और विशिष्ट बनाती ,
मुस्कान कभी होंठों पर आती ,
या सकुचा कर वह रह जाती ,
लगती वह वीर बहूटी सी ,
झीना सा अवगुंठन उसका ,
जिसमें से झाँका उसका रूप ,
लाल रंग की साड़ी उसकी ,
दुगना करती रूप अनूप ,
जैसे ही कुछ हलचल होती ,
वह छुईमुई सी हो जाती ,
तब मुझे अविराम कहीं ,
वीर बहूटी याद आती !
आशा
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