ये आँसू सरल नहीं होते ,
आँखें तक नम नहीं करते ,
इनके लिये सौहार्द्र चाहिये ,
मन की पीड़ा का ताप चाहिये ,
तभी कहीं ये बह पायेगे ,
बाढ़ नदी की बन पायेंगे|
आशा
26 अप्रैल, 2010
23 अप्रैल, 2010
नन्हा सा बीज
नन्हा सा बीज कहीं से आया
नदिया तट पर पैर जमाया
प्रकृती नटी की महिमा देखो
धरती पर हरियाली लाया
बहती नदिया की तीव्र गति
माटी बहा कर ले जाती
यदि वृक्ष का साथ नहीं पाती
कारण कटाव का बन जाती
तट पर पेड़ों की गहरी मूल
कस कर अपने प्रेम पाश में
माटी को जकड़े समूल
नदिया तट तोड़ नहीं पाती
मर्यादा छोड़ नहीं पाती
धरती क्षय होने से बच जाती
नदिया उथली ना हो पाती
पेड़ों की महिमा बहुत अधिक
इतना सा संदेशा लाती
बड़े वृक्ष घनेरी छाया
कितनों का बनते हैं सहारा
पंछी का बसेरा बनते
पंथी को छाया देते हैं
फल फूल और औषधियों से
मन में सुकून भर देते हैं
सब को खुश कर देते हैं
प्रकृति नटी का विशिष्ट नज़ारा
हरियाली व नदी का किनारा
मन उसमें रमता जाता
नन्हा सा बीज बन वृक्ष बड़ा
दिल में घर करता जाता |
आशा
21 अप्रैल, 2010
सच्चा मित्र
केवल जज्बातों में बह कर ,
उसको तुम क्या जानोगे ,
यदि वक्त पर आया काम ,
तभी उसे पहचानोगे ,
दुर्योधन ने निजी स्वार्थ वश ,
कर्ण को अपना मित्र बनाया ,
अंग देश का दिया राज्य ,
पर सच्चा मित्र ना बन पाया ,
दुनिया में सब कुछ मिलता है ,
पर असली मित्र ना मिल पाता ,
वह बहुत भाग्यशाली है ,
जो सच्चे दोस्त को पा जाता ,
अच्छे के सारे साथी हैं ,
अपना प्यार जताते हैं ,
यदि बुरा वक्त आ जाये ,
सब कन्नी काट चले जाते हैं ,
बुरे समय में जो अपनाये ,
ग़लत सही की पहचान कराये ,
सही राह पर ले कर आये ,
सच्चा मित्र वही कहलाये ,
हर अच्छे और बुरे समय में ,
मन से पूरा साथ निभाये ,
सरल सहज और पारदर्शी हो ,
मन की भाषा पढ़ना चाहे,
पर्दे की ओट से भी ,
जो सहज पहचाना जाये ,
कृष्ण सुदामा की मिसाल बन ,
तुम पर अपना सर्वस्व लुटाये ,
ऐसे मित्र की तलाश में ,
ज़ज्बातों का काम नहीं ,
समय बहुत प्रबल होता है
इसका तुम्हें अहसास नहीं
जिस दिन सच्चा मित्र मिलेगा
मन से तुमको अपनायेगा
सच्चा मित्र वही होगा
जो सही राह दिखलायेगा |
आशा
उसको तुम क्या जानोगे ,
यदि वक्त पर आया काम ,
तभी उसे पहचानोगे ,
दुर्योधन ने निजी स्वार्थ वश ,
कर्ण को अपना मित्र बनाया ,
अंग देश का दिया राज्य ,
पर सच्चा मित्र ना बन पाया ,
दुनिया में सब कुछ मिलता है ,
पर असली मित्र ना मिल पाता ,
वह बहुत भाग्यशाली है ,
जो सच्चे दोस्त को पा जाता ,
अच्छे के सारे साथी हैं ,
अपना प्यार जताते हैं ,
यदि बुरा वक्त आ जाये ,
सब कन्नी काट चले जाते हैं ,
बुरे समय में जो अपनाये ,
ग़लत सही की पहचान कराये ,
सही राह पर ले कर आये ,
सच्चा मित्र वही कहलाये ,
हर अच्छे और बुरे समय में ,
मन से पूरा साथ निभाये ,
सरल सहज और पारदर्शी हो ,
मन की भाषा पढ़ना चाहे,
पर्दे की ओट से भी ,
जो सहज पहचाना जाये ,
कृष्ण सुदामा की मिसाल बन ,
तुम पर अपना सर्वस्व लुटाये ,
ऐसे मित्र की तलाश में ,
ज़ज्बातों का काम नहीं ,
समय बहुत प्रबल होता है
इसका तुम्हें अहसास नहीं
जिस दिन सच्चा मित्र मिलेगा
मन से तुमको अपनायेगा
सच्चा मित्र वही होगा
जो सही राह दिखलायेगा |
आशा
19 अप्रैल, 2010
वर्तमान
कालचक्र चलता जाता
ना रुका कभी ना रोका जाता
बीता कल लौट नही पाता
मन अशांत करता जाता
फिर क्यूँ सोचूँ जो बीत गया
जो ना लौटा और रीत गया
अतीत पीछे छूट गया
जो बीत गया सो बीत गया
जीवन की कटुता से सीखा
बीता कल सहज नहीं होता
यदि अतीत में खोते जाओ
वर्तमान में जी ना पाओ
उस कल में ना जीना चाहूँ
जिसका कोई पता नहीं
केवल कोरी कल्पना में
क्यों मैं अपना समय गवाऊँ
यह जीवन तो क्षण भंगुर है
अगला पल किसने देखा है
फिर भविष्य की कल्पना में
क्यूँ भावुक हो बहती जाऊँ
उस कल की क्या बात करूँ
जो अनिश्चित है अनजाना है
ऐसे आगत की चिंता में
क्यूँ मैं अपना आज गवाऊँ
मैं वर्तमान में जीती हूँ
क्षण-क्षण का मोल समझती हूँ
हर पल का पूरा हिसाब रखा
मैं सही आकलन करती हूँ
समय का काँटा घूम रहा
वह तेजी से भाग रहा
अग्र भाग के केशों से
समय को पकड़े रहती हूँ
मैं जब दिल को बहलाना चाहूँ
इधर उधर साधन अनेक
उनमें से कुछ को चुन कर
अपना जीवन जीना चाहूँ
जो बीत गया वो ना लौटा
आने वाला कल किसने देखा
सब के सुख दुःख अपना कर
मैं यथार्थ में रहती हूँ
अनजाने लोग अनजान शहर
उनमें अपनापन पाकर
हर पल को खुशियों से भर कर
मैं वर्तमान में जीती हूँ |
आशा
ना रुका कभी ना रोका जाता
बीता कल लौट नही पाता
मन अशांत करता जाता
फिर क्यूँ सोचूँ जो बीत गया
जो ना लौटा और रीत गया
अतीत पीछे छूट गया
जो बीत गया सो बीत गया
जीवन की कटुता से सीखा
बीता कल सहज नहीं होता
यदि अतीत में खोते जाओ
वर्तमान में जी ना पाओ
उस कल में ना जीना चाहूँ
जिसका कोई पता नहीं
केवल कोरी कल्पना में
क्यों मैं अपना समय गवाऊँ
यह जीवन तो क्षण भंगुर है
अगला पल किसने देखा है
फिर भविष्य की कल्पना में
क्यूँ भावुक हो बहती जाऊँ
उस कल की क्या बात करूँ
जो अनिश्चित है अनजाना है
ऐसे आगत की चिंता में
क्यूँ मैं अपना आज गवाऊँ
मैं वर्तमान में जीती हूँ
क्षण-क्षण का मोल समझती हूँ
हर पल का पूरा हिसाब रखा
मैं सही आकलन करती हूँ
समय का काँटा घूम रहा
वह तेजी से भाग रहा
अग्र भाग के केशों से
समय को पकड़े रहती हूँ
मैं जब दिल को बहलाना चाहूँ
इधर उधर साधन अनेक
उनमें से कुछ को चुन कर
अपना जीवन जीना चाहूँ
जो बीत गया वो ना लौटा
आने वाला कल किसने देखा
सब के सुख दुःख अपना कर
मैं यथार्थ में रहती हूँ
अनजाने लोग अनजान शहर
उनमें अपनापन पाकर
हर पल को खुशियों से भर कर
मैं वर्तमान में जीती हूँ |
आशा
16 अप्रैल, 2010
प्रकृति से
हरी भरी बगिया में देखा ,
रंग बिरंगे फूल खिले ,
हरियाली छाई पेड़ों पर ,
फले फूले और खूब सजे ,
तरह-तरह के पक्षी आये ,
उन पेड़ों पर नीड़ बनाए ,
पर इक छोटी सी चिड़िया ,
आकृष्ट करे पंख फैलाये,
उसकी मीठी सी स्वर लहरी ,
जब भी कानों में पड़ जाये ,
एक अजीब सा सम्मोहन ,
उस ओर बरबस खींच लाये,
चूंचूं चूंचूं चींचीं चींचीं ,
चूंचूं चींचीं करती चिड़िया ,
इस डाल से उस डाल तक ,
पंख फैला कर उड़ती चिड़िया,
दाना पानी की तलाश में ,
बहुत दूर तक जाती चिड़िया ,
फिर पानी की तलाश में ,
नल कूप तक आती चिड़िया ,
जल स्त्रोत तक आना उसका ,
चोंच लगा नल की टोंटी से ,
बूँद-बूँद जल पीना उसका ,
मुझको अच्छा लगता है ,
घंटों बैठी उसे निहारूँ ,
ऐसा मुझको लगता है ,
मुझको आकर्षित करता है |
तिनका-तिनका चुन कर उसने ,
छोटा सा अपना नीड़ बनाया ,
उसी नीड़ में सुख से रहती ,
अपने चूजों को दाना देती ,
उसका समर्पण देख- देख कर ,
अपना घर याद आने लगता है ,
बच्चों की चिंता होती है ,
मन अस्थिर होने लगता है ,
कैसे घर समय पर पहुँचूँ ,
चिंता मुझको होती है ,
जब घर पहुँच जाती हूँ ,
तभी शांत मन हो पाता है ,
चिड़िया की मेहनत और समर्पण ,
बार-बार याद आते हैं ,
उसको देख बिताए वे पल ,
यादगार क्षण बन जाते हैं |
आशा
रंग बिरंगे फूल खिले ,
हरियाली छाई पेड़ों पर ,
फले फूले और खूब सजे ,
तरह-तरह के पक्षी आये ,
उन पेड़ों पर नीड़ बनाए ,
पर इक छोटी सी चिड़िया ,
आकृष्ट करे पंख फैलाये,
उसकी मीठी सी स्वर लहरी ,
जब भी कानों में पड़ जाये ,
एक अजीब सा सम्मोहन ,
उस ओर बरबस खींच लाये,
चूंचूं चूंचूं चींचीं चींचीं ,
चूंचूं चींचीं करती चिड़िया ,
इस डाल से उस डाल तक ,
पंख फैला कर उड़ती चिड़िया,
दाना पानी की तलाश में ,
बहुत दूर तक जाती चिड़िया ,
फिर पानी की तलाश में ,
नल कूप तक आती चिड़िया ,
जल स्त्रोत तक आना उसका ,
चोंच लगा नल की टोंटी से ,
बूँद-बूँद जल पीना उसका ,
मुझको अच्छा लगता है ,
घंटों बैठी उसे निहारूँ ,
ऐसा मुझको लगता है ,
मुझको आकर्षित करता है |
तिनका-तिनका चुन कर उसने ,
छोटा सा अपना नीड़ बनाया ,
उसी नीड़ में सुख से रहती ,
अपने चूजों को दाना देती ,
उसका समर्पण देख- देख कर ,
अपना घर याद आने लगता है ,
बच्चों की चिंता होती है ,
मन अस्थिर होने लगता है ,
कैसे घर समय पर पहुँचूँ ,
चिंता मुझको होती है ,
जब घर पहुँच जाती हूँ ,
तभी शांत मन हो पाता है ,
चिड़िया की मेहनत और समर्पण ,
बार-बार याद आते हैं ,
उसको देख बिताए वे पल ,
यादगार क्षण बन जाते हैं |
आशा
12 अप्रैल, 2010
नव चेतना
आज सुबह जब पेपर खोला ,
मुख्य पृष्ठ पर मैंने देखा ,
हाई अलर्ट कई राज्यों में ,
नक्सलियों ने हमला बोला ,
कितनों की जान गई आखिर ,
कितनों को पीछे रोता छोड़ा,
यह कैसी विडम्बना है,
या समाज की अवहेलना है ,
या राजनीति की घटिया चालों का,
एक छोटा सा नमूना है ,
नेताओं से लड़ने की ताकत ,
कोई भी न जुटा पाया ,
जो हिम्मत कर आगे आया ,
उसे जड़ से मिटता पाया ,
जिसने भी आवाज उठाई ,
या हथियार उठा कुछ विरोध किया ,
उसको माओवादी बोला ,
या नक्सली करार दिया ,
उसे समूल नष्ट करने का ,
बारम्बार विचार किया ,
वे आदिवासी भोले भाले ,
खुद में मस्त रहने वाले ,
उनके जजबातों से खेला ,
अपनी-अपनी रोटी सेकी ,
उनको केवल इस्तेमाल किया ,
उनकी आखिर चाहत क्या है,
कोई कभी न समझ पाया ,
केवल सतही बातों से ,
उनको अस्त्र बनाता आया ,
वे हैं कितने बेबस कितने लाचार ,
कोई नहीं जान पाया ,
राजनीति तो अंधी है ,
उसने केवल मतलब देखा ,
मतलब को पूरा करने को ,
आदिवासी को मरते देखा ,
कहने को तो सब कहते हैं ,
हर समस्या का हल होता है ,
पर इतनी लम्बी अवधि में ,
कोई भी हल न निकल पाया ,
शोषण कर्ता के खेलों का ,
कभी तो अंत होना है ,
यह है कैसा बोझ ,
जिसे समाज को ढोना है ,
क्या समाज सम्वेदनशील नहीं है ,
या रीढ़ की हड्डी ही नहीं है ,
कब जागरण आएगा ,
इन सब से मुक्ति दिलायेगा ,
जैसे दिन में तपता सूरज ,
कइयों को झुलसाता है ,
त्राहि त्राहि वे करते हैं ,
मन मसोस रह जाते हैं,
पर शाम होते ही सूरज ,
थक कर अस्त हो जाता है ,
आम आदमी उसकी गिरफ्त से ,
कुछ तो राहत पाता है |
आशा
मुख्य पृष्ठ पर मैंने देखा ,
हाई अलर्ट कई राज्यों में ,
नक्सलियों ने हमला बोला ,
कितनों की जान गई आखिर ,
कितनों को पीछे रोता छोड़ा,
यह कैसी विडम्बना है,
या समाज की अवहेलना है ,
या राजनीति की घटिया चालों का,
एक छोटा सा नमूना है ,
नेताओं से लड़ने की ताकत ,
कोई भी न जुटा पाया ,
जो हिम्मत कर आगे आया ,
उसे जड़ से मिटता पाया ,
जिसने भी आवाज उठाई ,
या हथियार उठा कुछ विरोध किया ,
उसको माओवादी बोला ,
या नक्सली करार दिया ,
उसे समूल नष्ट करने का ,
बारम्बार विचार किया ,
वे आदिवासी भोले भाले ,
खुद में मस्त रहने वाले ,
उनके जजबातों से खेला ,
अपनी-अपनी रोटी सेकी ,
उनको केवल इस्तेमाल किया ,
उनकी आखिर चाहत क्या है,
कोई कभी न समझ पाया ,
केवल सतही बातों से ,
उनको अस्त्र बनाता आया ,
वे हैं कितने बेबस कितने लाचार ,
कोई नहीं जान पाया ,
राजनीति तो अंधी है ,
उसने केवल मतलब देखा ,
मतलब को पूरा करने को ,
आदिवासी को मरते देखा ,
कहने को तो सब कहते हैं ,
हर समस्या का हल होता है ,
पर इतनी लम्बी अवधि में ,
कोई भी हल न निकल पाया ,
शोषण कर्ता के खेलों का ,
कभी तो अंत होना है ,
यह है कैसा बोझ ,
जिसे समाज को ढोना है ,
क्या समाज सम्वेदनशील नहीं है ,
या रीढ़ की हड्डी ही नहीं है ,
कब जागरण आएगा ,
इन सब से मुक्ति दिलायेगा ,
जैसे दिन में तपता सूरज ,
कइयों को झुलसाता है ,
त्राहि त्राहि वे करते हैं ,
मन मसोस रह जाते हैं,
पर शाम होते ही सूरज ,
थक कर अस्त हो जाता है ,
आम आदमी उसकी गिरफ्त से ,
कुछ तो राहत पाता है |
आशा
11 अप्रैल, 2010
चाँद, मैं और मेरी बेटी
तारों भरी रातों में ,
अक्सर भर जज़बातों में ,
तारों से बातें होती हैं ,
अपनों की याद सँजोती हैं ,
तारों की चमक और आकाश गंगा ,
रातों की संबल होती है,
तारों को जी भर कर देखा ,
और अपनों को याद किया ,
अपना तारा खोजा मैंने ,
उस पर रहने का विचार किया ,
झिलमिल तारों की बारात छोड़,
जैसे ही पूर्ण चंद्र आया ,
चाँदनी का आकर्षण ,
मुझे बाहर खींच लाया ,
ठुमक-ठुमक धीमे-धीमे ,
चुपके से आना उसका ,
कभी दीखती बहुत चपल ,
फिर गुमसुम हो जाना उसका ,
धीमी घुँघरू की छनछन,
मन में तरंग जगाने लगी ,
मीठे गीतों की स्वर लहरी ,
बन तरंग छाने लगी,
चाँदनी की शीतलता का ,
कुछ ऐसा चमत्कार हुआ ,
जब चाँद को देखा मैंने ,
छिपे प्यार का इज़हार हुआ ,
इतने में इक तारा टूटा ,
सपना मेरी चाहत का ,
इसी समय मन में फूटा ,
जल्दी से नयन मूँदे अपने ,
टूटे तारे से मैंने ,
मन की मुराद को माँग लिया ,
जब मैं बहुत छोटी सी थी ,
मेरी माँ अक्सर कहती थी ,
चन्दा में एक बुढ़िया रहती है ,
वह चरखे पर बैठ सदा ,
सूत कातती रहती है ,
मैंने बहुत ध्यान से देखा ,
वह बुढ़िया नज़र नहीं आई ,
केवल काले-काले धब्बे ,
और ना कुछ देख पाई,
जब चाहत मेरी रंग लाई ,
पूर्ण चंद्र सी बेटी ,
मेरे आँगन में उतर आई ,
दमन खुशियों से भर लाई ,
वह अक्सर चाँद देखती है ,
उसको पाने को कहती है ,
काफी सोच विचार किया ,
फिर से याद पुरानी आई ,
आँगन में ले आई थाली ,
उस में भर पानी मैंने ,
थाली में चाँद उसे दिखाया ,
उसे खुशी से झूमता पाया ,
फिर चाँद पकड़ने की कोशिश में ,
नन्हा हाथ थाली तक आया ,
जैसे ही हाथ थाली तक पहुँचा ,
चंदा को दूर खुद से पाया ,
वह प्रश्न अनेकों करती है ,
कई-कई सोच बदलती है ,
चंदा क्यूँ पास नहीं आता ,
ऐसे क्यूँ उसको तरसाता ,
वह तो उससे मिलना चाहे ,
इतनी सी बात ना समझ पाता ,
चरखे वाली नानी शायद ,
उसको नहीं आने देतीं ,
या है कोई अन्य समस्या ,
उसको नहीं खेलने देती ,
चंदा तो सदा दूर ही होगा ,
कभी पास ना आयेगा ,
यह कैसे उसको समझाऊँ ,
उसका मन कैसे बहलाऊँ |
आशा
अक्सर भर जज़बातों में ,
तारों से बातें होती हैं ,
अपनों की याद सँजोती हैं ,
तारों की चमक और आकाश गंगा ,
रातों की संबल होती है,
तारों को जी भर कर देखा ,
और अपनों को याद किया ,
अपना तारा खोजा मैंने ,
उस पर रहने का विचार किया ,
झिलमिल तारों की बारात छोड़,
जैसे ही पूर्ण चंद्र आया ,
चाँदनी का आकर्षण ,
मुझे बाहर खींच लाया ,
ठुमक-ठुमक धीमे-धीमे ,
चुपके से आना उसका ,
कभी दीखती बहुत चपल ,
फिर गुमसुम हो जाना उसका ,
धीमी घुँघरू की छनछन,
मन में तरंग जगाने लगी ,
मीठे गीतों की स्वर लहरी ,
बन तरंग छाने लगी,
चाँदनी की शीतलता का ,
कुछ ऐसा चमत्कार हुआ ,
जब चाँद को देखा मैंने ,
छिपे प्यार का इज़हार हुआ ,
इतने में इक तारा टूटा ,
सपना मेरी चाहत का ,
इसी समय मन में फूटा ,
जल्दी से नयन मूँदे अपने ,
टूटे तारे से मैंने ,
मन की मुराद को माँग लिया ,
जब मैं बहुत छोटी सी थी ,
मेरी माँ अक्सर कहती थी ,
चन्दा में एक बुढ़िया रहती है ,
वह चरखे पर बैठ सदा ,
सूत कातती रहती है ,
मैंने बहुत ध्यान से देखा ,
वह बुढ़िया नज़र नहीं आई ,
केवल काले-काले धब्बे ,
और ना कुछ देख पाई,
जब चाहत मेरी रंग लाई ,
पूर्ण चंद्र सी बेटी ,
मेरे आँगन में उतर आई ,
दमन खुशियों से भर लाई ,
वह अक्सर चाँद देखती है ,
उसको पाने को कहती है ,
काफी सोच विचार किया ,
फिर से याद पुरानी आई ,
आँगन में ले आई थाली ,
उस में भर पानी मैंने ,
थाली में चाँद उसे दिखाया ,
उसे खुशी से झूमता पाया ,
फिर चाँद पकड़ने की कोशिश में ,
नन्हा हाथ थाली तक आया ,
जैसे ही हाथ थाली तक पहुँचा ,
चंदा को दूर खुद से पाया ,
वह प्रश्न अनेकों करती है ,
कई-कई सोच बदलती है ,
चंदा क्यूँ पास नहीं आता ,
ऐसे क्यूँ उसको तरसाता ,
वह तो उससे मिलना चाहे ,
इतनी सी बात ना समझ पाता ,
चरखे वाली नानी शायद ,
उसको नहीं आने देतीं ,
या है कोई अन्य समस्या ,
उसको नहीं खेलने देती ,
चंदा तो सदा दूर ही होगा ,
कभी पास ना आयेगा ,
यह कैसे उसको समझाऊँ ,
उसका मन कैसे बहलाऊँ |
आशा
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