27 अप्रैल, 2010

बंधन जाति का

खिली कली बीता बचपन
जाने कब अनजाने में
दी दस्तक दरवाज़े पर
यौवन की प्रथम सीढ़ी पर
जैसे ही कदम पड़े उसके
आँखों ने छलकाया यौवन
हर एक अदा में सम्मोहन
वह दिल में जगह बना बैठी
सजनी बन सपने में आ बैठी |
धीरे-धीरे कब प्यार हुआ
साथ जीने मरने का
जाने कब इकरार हुआ
छिप-छिप कर आना उसका
मन के सारे भेद बता कर
जी भर कर हँसना उसका
निश्छल मन चंचल चितवन
आनन पर लहराती काकुल
मन में कर देती हलचल |
जब विवाह तक आना चाहा
जाति प्रथा का पड़ा तमाचा
ध्वस्त हुए सारे सपने
कोई भी नहीं हुए अपने |
माँ बाबा ने उसे बुला कर
मुझसे दूर उसे ले जा कर
एक जाति बंधु से ब्याह रचाया
उसका मुझसे नाता तुड़वाया
मुझ में ऐसी क्या कमियाँ थीं
मै तो समझ नहीं पाया |
जाति में मन चाहा वर
भाग्यशाली ही पाता है
अक्सर यह लाभ
कुपात्र ही ले जाता है
वह थोड़ा बहुत कमाता था
बहुत व्यस्त है दर्शाता था
ऐसा भी कोई गुणी नहीं था
जिस कारण अकड़ा जाता था
सारी हदें पार करता था
बेबसी पर खुश होता था |
पहले तो वह झुकती जाती थी
हर बार पिता की इज्जत का
ख्याल मन में लाती थी
फिर घुट-घुट कर जीना सीख लिया
समाज से डरना सीख लिया |
मैं भी दस-दस आँसू रोया
फिर दुनियादारी में खोया
एक लम्बा अरसा बीत गया
यादों को मन में दफना कर
उन पर पर्दा डाल दिया
अब जीवन चलता पटरी पर
कहीं नहीं भटकता पल भर |
तेज हवा की आँधी सी वह
मेरे सामने खड़ी हुई थी
बहुत उदास आँखों में आँसू
खंडित प्रतिमा सी लग रही थी
उसके आँसू देख न पाया
जज्बातों को बस में करके
उसका हाल पूछना चाहा
पहले कुछ न बोल पाई
फिर धीरे से प्रतिक्रिया आई
ऐसा कैसा जाति का बंधन
जो बेमेल विवाह का कारक बन
जीने की ललक मिटा देता
कितनों का जीवन हर लेता |
जब उसकी व्यथा कथा को जाना
मनोदशा को पहचाना
नफरत से मन भर आया
विद्रोही मन उग्र हुआ
जाति प्रथा को जी भर कोसा |


आशा

26 अप्रैल, 2010

क्षणिका

ये आँसू सरल नहीं होते ,
आँखें तक नम नहीं करते ,
इनके लिये सौहार्द्र चाहिये ,
मन की पीड़ा का ताप चाहिये ,
तभी कहीं ये बह पायेगे ,
बाढ़ नदी की बन पायेंगे|

आशा

23 अप्रैल, 2010

नन्हा सा बीज

नन्हा सा बीज कहीं से आया
नदिया तट पर पैर जमाया
प्रकृती नटी की महिमा देखो
धरती पर हरियाली लाया
बहती नदिया की तीव्र गति
माटी बहा कर ले जाती
यदि वृक्ष का साथ नहीं पाती
कारण कटाव का बन जाती
तट पर पेड़ों की गहरी मूल
कस कर अपने प्रेम पाश में
माटी को जकड़े समूल
नदिया तट तोड़ नहीं पाती
मर्यादा छोड़ नहीं पाती
धरती क्षय होने से बच जाती
नदिया उथली ना हो पाती
पेड़ों की महिमा बहुत अधिक 
इतना सा संदेशा लाती
बड़े वृक्ष घनेरी छाया
कितनों का बनते हैं सहारा
पंछी का बसेरा बनते 
पंथी को छाया देते हैं
फल फूल और औषधियों से
मन में सुकून भर देते हैं
सब को खुश कर देते हैं
प्रकृति नटी का विशिष्ट नज़ारा
हरियाली व  नदी का किनारा
मन उसमें रमता जाता 
नन्हा सा बीज बन वृक्ष बड़ा
दिल में घर करता जाता  |


आशा

21 अप्रैल, 2010

सच्चा मित्र

केवल जज्बातों में बह कर ,
उसको तुम क्या जानोगे ,
यदि वक्त पर आया काम ,
तभी उसे पहचानोगे ,
दुर्योधन ने निजी स्वार्थ वश ,
कर्ण को अपना मित्र बनाया ,
अंग देश का दिया राज्य ,
पर सच्चा मित्र ना बन पाया ,
दुनिया में सब कुछ मिलता है ,
पर असली मित्र ना मिल पाता ,
वह बहुत भाग्यशाली है ,
जो सच्चे दोस्त को पा जाता ,
अच्छे के सारे साथी हैं ,
अपना प्यार जताते हैं ,
यदि बुरा वक्त आ जाये ,
सब कन्नी काट चले जाते हैं ,
बुरे समय में जो अपनाये ,
ग़लत सही की पहचान कराये ,
सही राह पर ले कर आये ,
सच्चा मित्र वही कहलाये ,
हर अच्छे और बुरे समय में ,
मन से पूरा साथ निभाये ,
सरल सहज और पारदर्शी हो ,
मन की भाषा पढ़ना चाहे,
पर्दे की ओट से भी ,
जो सहज पहचाना जाये ,
कृष्ण सुदामा की मिसाल बन ,
तुम पर अपना सर्वस्व लुटाये ,
ऐसे मित्र की तलाश में ,
ज़ज्बातों का काम नहीं ,
समय बहुत प्रबल होता है
इसका तुम्हें अहसास नहीं
जिस दिन सच्चा मित्र मिलेगा
मन से तुमको अपनायेगा
सच्चा मित्र वही होगा
जो सही राह दिखलायेगा |


आशा

19 अप्रैल, 2010

वर्तमान

कालचक्र चलता जाता
ना रुका कभी ना रोका जाता
बीता कल लौट नही पाता
मन अशांत करता जाता
फिर क्यूँ सोचूँ जो बीत गया
जो ना लौटा और रीत गया
अतीत पीछे छूट गया
जो बीत गया सो बीत गया
जीवन की कटुता से सीखा
बीता कल सहज नहीं होता
यदि अतीत में खोते जाओ
वर्तमान में जी ना पाओ
उस कल में ना जीना चाहूँ
जिसका कोई पता नहीं
केवल कोरी कल्पना में
क्यों मैं अपना समय गवाऊँ
यह जीवन तो क्षण भंगुर है
अगला पल किसने देखा है
फिर भविष्य की कल्पना में
क्यूँ भावुक हो बहती जाऊँ
उस कल की क्या बात करूँ
जो अनिश्चित है अनजाना है
ऐसे आगत की चिंता में 
क्यूँ मैं अपना आज गवाऊँ
मैं वर्तमान में जीती हूँ
क्षण-क्षण का मोल समझती हूँ
हर पल का पूरा हिसाब रखा
मैं सही आकलन करती हूँ
समय का काँटा घूम रहा
वह तेजी से भाग रहा
अग्र भाग के केशों से
समय को पकड़े रहती हूँ
मैं जब दिल को बहलाना चाहूँ
इधर उधर साधन अनेक
उनमें से कुछ को चुन कर
अपना जीवन जीना चाहूँ
जो बीत गया वो ना लौटा
आने वाला कल किसने देखा
सब के सुख दुःख अपना कर
मैं यथार्थ में रहती हूँ
अनजाने लोग अनजान शहर
उनमें अपनापन पाकर
हर पल को खुशियों से भर कर
मैं वर्तमान में जीती हूँ |
आशा

16 अप्रैल, 2010

प्रकृति से

हरी भरी बगिया में देखा ,
रंग बिरंगे फूल खिले ,
हरियाली छाई पेड़ों पर ,
फले फूले और खूब सजे ,
तरह-तरह के पक्षी आये ,
उन पेड़ों पर नीड़ बनाए ,
पर इक छोटी सी चिड़िया ,
आकृष्ट करे पंख फैलाये,
उसकी मीठी सी स्वर लहरी ,
जब भी कानों में पड़ जाये ,
एक अजीब सा सम्मोहन ,
उस ओर बरबस खींच लाये,
चूंचूं चूंचूं चींचीं चींचीं ,
चूंचूं चींचीं करती चिड़िया ,
इस डाल से उस डाल तक ,
पंख फैला कर उड़ती चिड़िया,
दाना पानी की तलाश में ,
बहुत दूर तक जाती चिड़िया ,
फिर पानी की तलाश में ,
नल कूप तक आती चिड़िया ,
जल स्त्रोत तक आना उसका ,
चोंच लगा नल की टोंटी से ,
बूँद-बूँद जल पीना उसका ,
मुझको अच्छा लगता है ,
घंटों बैठी उसे निहारूँ ,
ऐसा मुझको लगता है ,
मुझको आकर्षित करता है |
तिनका-तिनका चुन कर उसने ,
छोटा सा अपना नीड़ बनाया ,
उसी नीड़ में सुख से रहती ,
अपने चूजों को दाना देती ,
उसका समर्पण देख- देख कर ,
अपना घर याद आने लगता है ,
बच्चों की चिंता होती है ,
मन अस्थिर होने लगता है ,
कैसे घर समय पर पहुँचूँ ,
चिंता मुझको होती है ,
जब घर पहुँच जाती हूँ ,
तभी शांत मन हो पाता है ,
चिड़िया की मेहनत और समर्पण ,
बार-बार याद आते हैं ,
उसको देख बिताए वे पल ,
यादगार क्षण बन जाते हैं |


आशा

12 अप्रैल, 2010

नव चेतना

आज सुबह जब पेपर खोला ,
मुख्य पृष्ठ पर मैंने देखा ,
हाई अलर्ट कई राज्यों में ,
नक्सलियों ने हमला बोला ,
कितनों की जान गई आखिर ,
कितनों को पीछे रोता छोड़ा,
यह कैसी विडम्बना है,
या समाज की अवहेलना है ,
या राजनीति की घटिया चालों का,
एक छोटा सा नमूना है ,
नेताओं से लड़ने की ताकत ,
कोई भी न जुटा पाया ,
जो हिम्मत कर आगे आया ,
उसे जड़ से मिटता पाया ,
जिसने भी आवाज उठाई ,
या हथियार उठा कुछ विरोध किया ,
उसको माओवादी बोला ,
या नक्सली करार दिया ,
उसे समूल नष्ट करने का ,
बारम्बार विचार किया ,
वे आदिवासी भोले भाले ,
खुद में मस्त रहने वाले ,
उनके जजबातों से खेला ,
अपनी-अपनी रोटी सेकी ,
उनको केवल इस्तेमाल किया ,
उनकी आखिर चाहत क्या है,
कोई कभी न समझ पाया ,
केवल सतही बातों से ,
उनको अस्त्र बनाता आया ,
वे हैं कितने बेबस कितने लाचार ,
कोई नहीं जान पाया ,
राजनीति तो अंधी है ,
उसने केवल मतलब देखा ,
मतलब को पूरा करने को ,
आदिवासी को मरते देखा ,
कहने को तो सब कहते हैं ,
हर समस्या का हल होता है ,
पर इतनी लम्बी अवधि में ,
कोई भी हल न निकल पाया ,
शोषण कर्ता के खेलों का ,
कभी तो अंत होना है ,
यह है कैसा बोझ ,
जिसे समाज को ढोना है ,
क्या समाज सम्वेदनशील नहीं है ,
या रीढ़ की हड्डी ही नहीं है ,
कब जागरण आएगा ,
इन सब से मुक्ति दिलायेगा ,
जैसे दिन में तपता सूरज ,
कइयों को झुलसाता है ,
त्राहि त्राहि वे करते हैं ,
मन मसोस रह जाते हैं,
पर शाम होते ही सूरज ,
थक कर अस्त हो जाता है ,
आम आदमी उसकी गिरफ्त से ,
कुछ तो राहत पाता है |


आशा