जब तुम इधर से गुजरती हो ,
पहली वर्षा की फुहार सी लगती हो ,
पुरवइया बयार सी लगती हो ,
तुम मुझे कुछ-कुछ अपनी सी लगती हो |
होंठों पर मधुर मुस्कान लिये ,
कजरारी आँखों में प्यार लिये ,
जब तुम धीमी गति से चलती हो ,
मुझे बहुत प्यारी लगती हो
बचपन में तुम्हारा आना ,
मेरेपास से हँस कर गुजर जाना ,
फूलों से घर को सजाना ,
गुड़ियों का ब्याह रचाना ,
और बारात में हमें बुलाना ,
फिर सब का स्वागत करवाना ,
सब मुझे सपना सा लगता है ,
तब भी तुम्हें देखने का मन करता है ,
अब मैं तम्हें दूर से देखता हूँ ,
क्योंकि अब तुम मेरी
बचपन की दोस्त नहीं हो ,
अब तुम मेरी निगाह में ,
हर बात में , जजबात में
मुझसे बहुत दूर खड़ी हो ,
यह निश्छल प्यार का बंधन है ,
बीते बचपन का अभिनन्दन है ,
कॉलेज में साथ पढ़ते हैं ,
फिर भी दूरी रखते हैं ,
हर शब्द सोच कर कहते हैं ,
शायद मन में यह रहता है ,
कोई गलत अर्थ न लगा पाये
व्यर्थ विवाद ना हो जाये ।
जब तुम भी कहीं चली जाओगी ,
मैं भी कहीं दूर रहूँगा ,
दोनों अजनबी से बन जायेंगे ,
यदि जीवन के किसी मोड़ पर मिले ,
बीते दिन छाया चित्र से नजर आयेंगे ,
यादों के सैलाब उमड़ आयेंगे ,
हम उनमें फिर से खो जायेंगे |
आशा
,
20 मई, 2010
19 मई, 2010
इंतज़ार अभी बाकी है
विरही मन चारों ओर भटकता है ,
हर आहट पर चौंक जाता है ,
शायद वह लौट कर आयेगी ,
इंतज़ार नहीं करवायेगी |
मैं तपता सूरज कभी नहीं था ,
पर शांत कभी न रह पाया ,
मयंक सा शीतल न हो पाया ,
उसे कभी न समझ पाया |
मैं कैसे इतना निष्ठुर निकला ,
ऐसा क्या गलत किया मैंने ,
मुझे भूल गई बिसरा बैठी ,
कहीं और तो नेह न लगा बैठी ?
उसे मेरी याद नहीं आई ,
क्यों मुझे समझ नहीं पाई ,
घंटों मोबाईल पर बातें ,
अक्सर चैटिंग भी करती थी |
वह यह सब कैसे भूल गयी,
बीता कल पीछे छोड गयी ,
मैं दीपक सा जलता ही रहा ,
पर उसे कभी झुलसने न दिया |
मैं ही शायद गलत कहीं हूँ ,
कैसे यह अलगाव सहूँ ,
मन उद्वेलित होता जाये ,
विद्रूप से भरता जाये |
मन का तिलस्म टूट गया ,
वह बैचेनी से भटक रहा ,
मुझ में ही कुछ कमी रह गयी ,
अपना उसे बना न पाया ,
घायल पंछी सा तड़पता रहा ,
ठंडी बयार न दे पाया |
फिर भी हर क्षण ,
उसकी याद सताती है ,
वह चाहे कुछ भी सोचे ,
इंतज़ार अभी तक बाकी है |
आशा
हर आहट पर चौंक जाता है ,
शायद वह लौट कर आयेगी ,
इंतज़ार नहीं करवायेगी |
मैं तपता सूरज कभी नहीं था ,
पर शांत कभी न रह पाया ,
मयंक सा शीतल न हो पाया ,
उसे कभी न समझ पाया |
मैं कैसे इतना निष्ठुर निकला ,
ऐसा क्या गलत किया मैंने ,
मुझे भूल गई बिसरा बैठी ,
कहीं और तो नेह न लगा बैठी ?
उसे मेरी याद नहीं आई ,
क्यों मुझे समझ नहीं पाई ,
घंटों मोबाईल पर बातें ,
अक्सर चैटिंग भी करती थी |
वह यह सब कैसे भूल गयी,
बीता कल पीछे छोड गयी ,
मैं दीपक सा जलता ही रहा ,
पर उसे कभी झुलसने न दिया |
मैं ही शायद गलत कहीं हूँ ,
कैसे यह अलगाव सहूँ ,
मन उद्वेलित होता जाये ,
विद्रूप से भरता जाये |
मन का तिलस्म टूट गया ,
वह बैचेनी से भटक रहा ,
मुझ में ही कुछ कमी रह गयी ,
अपना उसे बना न पाया ,
घायल पंछी सा तड़पता रहा ,
ठंडी बयार न दे पाया |
फिर भी हर क्षण ,
उसकी याद सताती है ,
वह चाहे कुछ भी सोचे ,
इंतज़ार अभी तक बाकी है |
आशा
18 मई, 2010
दो किनारे नदिया के
दो किनारे नदिया के ,
होते है कितने बेचारे ,
साथ-साथ चलते हैं सदा ,
फिर भी मिल नहीं पाते ,
संगम को तरस जाते|
ये जन्म और मृत्यु जैसे नहीं होते ,
जो कभी एक न हो पाते ,
वे कभी साथ न चल पाते |
किनारों में है गहरा बंधन ,
यह बंधन नहीं है अनजाना ,
इसको किसीने न जाना ,
वे अलग-अलग तो रहते हैं ,
पर उनमें है गहरा बंधन ,
बंधन सेतु है बहता पानी ,
जिसका कोई नहीं सानी |
देख एक दूसरे को दोनों ,
आगे तो बढ़ते रहते हैं ,
हमराही भी कहलाते हैं ,
आगे बढ़ते हैं अनजानों से ,
चलते जाते बेगानों से ,
शायद हालातों से है समझौता ,
पर है यह समन्वय कैसा ,
समझौते की बात करें क्या ,
वे ख़ुद ही कटते जाते हैं ,
पर राह छोड़ नहीं पाते हैं |
यदि सलिला नहीं होती ,
शायद वे भी नहीं होते ,
अपना अस्तित्व कहाँ खोजते ,
साथ चले थे साथ चल रहे ,
आगे भी साथ निभायेंगे ,
प्रगाढ़ बंध के कारण हैं वे ,
यह कैसे भूल पायेंगे ,
किसी के साथ चलने की,
होती है हर पल चाह ,
शायद यही है जीवन जीने की राह |
आशा
होते है कितने बेचारे ,
साथ-साथ चलते हैं सदा ,
फिर भी मिल नहीं पाते ,
संगम को तरस जाते|
ये जन्म और मृत्यु जैसे नहीं होते ,
जो कभी एक न हो पाते ,
वे कभी साथ न चल पाते |
किनारों में है गहरा बंधन ,
यह बंधन नहीं है अनजाना ,
इसको किसीने न जाना ,
वे अलग-अलग तो रहते हैं ,
पर उनमें है गहरा बंधन ,
बंधन सेतु है बहता पानी ,
जिसका कोई नहीं सानी |
देख एक दूसरे को दोनों ,
आगे तो बढ़ते रहते हैं ,
हमराही भी कहलाते हैं ,
आगे बढ़ते हैं अनजानों से ,
चलते जाते बेगानों से ,
शायद हालातों से है समझौता ,
पर है यह समन्वय कैसा ,
समझौते की बात करें क्या ,
वे ख़ुद ही कटते जाते हैं ,
पर राह छोड़ नहीं पाते हैं |
यदि सलिला नहीं होती ,
शायद वे भी नहीं होते ,
अपना अस्तित्व कहाँ खोजते ,
साथ चले थे साथ चल रहे ,
आगे भी साथ निभायेंगे ,
प्रगाढ़ बंध के कारण हैं वे ,
यह कैसे भूल पायेंगे ,
किसी के साथ चलने की,
होती है हर पल चाह ,
शायद यही है जीवन जीने की राह |
आशा
17 मई, 2010
तीन चूहे
तीन चूहे थे |वे अपने आप को बहुत चतुर समझते थे |प़र वे बिल्ली से बहुत डरते थे |हर समय अपने आप को उससे बचाने की कोशिश में लगे रहते थे |एक दिन उनने सोचा की क्यों न वे अपने मकान बना लें रोज रोज का झंझट ही
समाप्त हो जाएगा |
पहले चूहे ताऊं ने अपना मकान कागज का बनाया ,
उसमें रंग बिरंगा दरवाजा लगवाया |
ख़ुद को बहुत सुरक्षित पाया |
दूसरे चूहे ठाऊँ ने एक किला बनवाया,
आसपास की खाई में दूध भरवाया ,
किले में अपने को अधिक सुरक्षित पाया |
तीसरा चूहा दाऊं था ,
वह बहुत असमंजस में था ,
आर्कीटेक्ट से नक्षा बनवाया ,
सीमेंट रेत से घर बनवाया ,
लोहे का दरवाजा लगवाया ,
अन्दर ख़ुद को सुरक्षित पाया |
बिल्ली भी कुछ कम नहीं थी ,
उसने एक तरकीब सोची,
पहुंची पहले ताऊं के घर ,
बोली "बेटा ताऊं ,बेटा ताऊं ,
क्या मैं घर के भीतर आऊं ",
ताऊं बोला " मौसी आज नहीं आना ,
मुझको है बाहर जाना "
पहले तो वह लौट चली ,
पर कुछ सोच लौट पड़ी ,
गुस्से मैं पंजा फैलाया ,
ताकत से घर पर दे मारा ,
कागज का मकान नष्ट हो गया ,
ताऊंबिल्ली का भोजन हो गया |
पेट भर गया जब बिल्ली का ,
उसका मूड ठीक हो गया |
दुसरे दिन बिल्ली देर से उठी ओर इधर उधर घूमने लगी |पर कुछ समय बाद उसे भूख सताने लगी उसको ख्याल आया की क्यों न वह ठाऊं के घर जाए ओर उसे अपना भोजन बनाए |
वह जल्दी से किले तक पहुंची ,
खाई देख हुई भोंच्क्की ,
केसे खाई पार करे ,
ओर किले तक पहुंचे ,
कुछ क्षण तक वह खडी रही,
फिर सारा दूधचट कर गई ,
ओर खाई पार कर गई |
एक छलांग में दीवार फांद कर,
ठाऊं को भी चट कर गई |
बात तीसरे दिन की है |जब बिल्ली को भूख लगी तब वह बेचैन हो रही थी | अब उसे दाऊं की याद आनेलगी |
ओर वह उसके घर की ओर चल दी |
जैसे ही उसने घर देखा ,
लोहे का दरवाजा देखा ,
घूम घूम बाहर से घर देखा ,
कोइ राह नजर न आई ,
उसके मन में उदासी छाई |
फिर भी हिम्मत न हारी,
मीठी आवाज में वह बोली ,
दाऊं दाऊं प्यारेदाऊं ,
"क्या नया घर नहीं दिखलाओगे ,
अपने घर नहीं बुलाओगे ",
दाऊं बहुत सीधा था वह भूल गया कि अपने घर में ही वह बहुत सुरक्षित है |घर दिखाने की लालसा में उसने
लोहे का दरवाजा खोल दिया |
जैसे ही बिल्ली अन्दर आई ,
मुंह से लार उसने टपकाई ,
फुर्ती से कूदी दाऊं पर ,
पंजे में कस कर पकड़ लिया ,
उसे भी पेट के हवाले किया |
सारे मकान खाली रह गये ,
तीनों चूहे नष्ट हो गए ,
बिल्ली मौसी से कोई भी नहीं बच पाया |तीनों की चतुराई बिल्ली के आगे न चल सकी
समाप्त हो जाएगा |
पहले चूहे ताऊं ने अपना मकान कागज का बनाया ,
उसमें रंग बिरंगा दरवाजा लगवाया |
ख़ुद को बहुत सुरक्षित पाया |
दूसरे चूहे ठाऊँ ने एक किला बनवाया,
आसपास की खाई में दूध भरवाया ,
किले में अपने को अधिक सुरक्षित पाया |
तीसरा चूहा दाऊं था ,
वह बहुत असमंजस में था ,
आर्कीटेक्ट से नक्षा बनवाया ,
सीमेंट रेत से घर बनवाया ,
लोहे का दरवाजा लगवाया ,
अन्दर ख़ुद को सुरक्षित पाया |
बिल्ली भी कुछ कम नहीं थी ,
उसने एक तरकीब सोची,
पहुंची पहले ताऊं के घर ,
बोली "बेटा ताऊं ,बेटा ताऊं ,
क्या मैं घर के भीतर आऊं ",
ताऊं बोला " मौसी आज नहीं आना ,
मुझको है बाहर जाना "
पहले तो वह लौट चली ,
पर कुछ सोच लौट पड़ी ,
गुस्से मैं पंजा फैलाया ,
ताकत से घर पर दे मारा ,
कागज का मकान नष्ट हो गया ,
ताऊंबिल्ली का भोजन हो गया |
पेट भर गया जब बिल्ली का ,
उसका मूड ठीक हो गया |
दुसरे दिन बिल्ली देर से उठी ओर इधर उधर घूमने लगी |पर कुछ समय बाद उसे भूख सताने लगी उसको ख्याल आया की क्यों न वह ठाऊं के घर जाए ओर उसे अपना भोजन बनाए |
वह जल्दी से किले तक पहुंची ,
खाई देख हुई भोंच्क्की ,
केसे खाई पार करे ,
ओर किले तक पहुंचे ,
कुछ क्षण तक वह खडी रही,
फिर सारा दूधचट कर गई ,
ओर खाई पार कर गई |
एक छलांग में दीवार फांद कर,
ठाऊं को भी चट कर गई |
बात तीसरे दिन की है |जब बिल्ली को भूख लगी तब वह बेचैन हो रही थी | अब उसे दाऊं की याद आनेलगी |
ओर वह उसके घर की ओर चल दी |
जैसे ही उसने घर देखा ,
लोहे का दरवाजा देखा ,
घूम घूम बाहर से घर देखा ,
कोइ राह नजर न आई ,
उसके मन में उदासी छाई |
फिर भी हिम्मत न हारी,
मीठी आवाज में वह बोली ,
दाऊं दाऊं प्यारेदाऊं ,
"क्या नया घर नहीं दिखलाओगे ,
अपने घर नहीं बुलाओगे ",
दाऊं बहुत सीधा था वह भूल गया कि अपने घर में ही वह बहुत सुरक्षित है |घर दिखाने की लालसा में उसने
लोहे का दरवाजा खोल दिया |
जैसे ही बिल्ली अन्दर आई ,
मुंह से लार उसने टपकाई ,
फुर्ती से कूदी दाऊं पर ,
पंजे में कस कर पकड़ लिया ,
उसे भी पेट के हवाले किया |
सारे मकान खाली रह गये ,
तीनों चूहे नष्ट हो गए ,
बिल्ली मौसी से कोई भी नहीं बच पाया |तीनों की चतुराई बिल्ली के आगे न चल सकी
16 मई, 2010
सोच एक शाम की
शाम को झील के किनारे ,
बेंच पर बैठना अच्छा लगता है ,
हरियाली पास से देखना ,
सपना सा लगता है ,
झिलमिल करते बिजली के खम्भे ,
उनकी पानी में छाया ,
पानी में छोटी-छोटी कश्ती ,
दृश्य मनमोहक लगता है |
धीमी गति की लहरों में ,
अँधेरी रात के पहलू में ,
पानी में पैर डाले रखना ,
जब मन चाहे छप-छप करना ,
जल से नाता अपना रखना ,
मुझको बहुत प्यारा लगता है |
दूर एक छोटा सा मंदिर ,
मन्दिर में एक सुन्दर मूरत ,
रोशनी से भरा हुआ परिसर ,
भक्तों की भीड़ अपार जहाँ पर ,
मधुर ध्वनि घंटों की सुनकर ,
वहाँ पहुँचने का मन करता है |
अनिश्चय की दुविधा मिट जाती है ,
मन अभिमंत्रित हो जाता है ,
जल्दी से वहाँ पहुँच पाऊँ ,
प्रभु चरणों में शीश नवाऊँ ,
भगवत भजन में चित्त लगाऊँ ,
सारी चिंता बिसराऊँ ,
संसार चक्र से मुक्ति पाऊँ |
आशा
बेंच पर बैठना अच्छा लगता है ,
हरियाली पास से देखना ,
सपना सा लगता है ,
झिलमिल करते बिजली के खम्भे ,
उनकी पानी में छाया ,
पानी में छोटी-छोटी कश्ती ,
दृश्य मनमोहक लगता है |
धीमी गति की लहरों में ,
अँधेरी रात के पहलू में ,
पानी में पैर डाले रखना ,
जब मन चाहे छप-छप करना ,
जल से नाता अपना रखना ,
मुझको बहुत प्यारा लगता है |
दूर एक छोटा सा मंदिर ,
मन्दिर में एक सुन्दर मूरत ,
रोशनी से भरा हुआ परिसर ,
भक्तों की भीड़ अपार जहाँ पर ,
मधुर ध्वनि घंटों की सुनकर ,
वहाँ पहुँचने का मन करता है |
अनिश्चय की दुविधा मिट जाती है ,
मन अभिमंत्रित हो जाता है ,
जल्दी से वहाँ पहुँच पाऊँ ,
प्रभु चरणों में शीश नवाऊँ ,
भगवत भजन में चित्त लगाऊँ ,
सारी चिंता बिसराऊँ ,
संसार चक्र से मुक्ति पाऊँ |
आशा
14 मई, 2010
अनमोल नज़ारा
गर्मी का मौसम और ठंडी बयार ,
झील का किनारा एक मदहोश शाम ,
सनोवर के पेड़ों की लम्बी होती छाया ,
पानी में हिलती डुलती जैसे कोई काया ,
है रंगीन फिज़ा ओर अनमोल नज़ारा |
पानी में दिखती हाउस बोट,
भाग जिसके लकड़ी से तराशे गये ,
बाहर और अन्दर का रख रखाव ,
उसमें चार चाँद लगाते हैं ,
अविस्मरणीय उसे बनाते हैं ,
पानी में घर और उसका अक्स ,
दोनों ही मन को लुभाते हैं |
जो लोग वहाँ ठहरते हैं ,
झील का नज़ारा देखते हैं ,
पा प्रकृति की गोद में ख़ुद को ,
अपने को धन्य समझते हैं |
उगता सूरज स्वर्णिम आभा ,
झील का मन मोहक नज़ारा ,
रंगों को कूची में ले कर ,
केनवास पर उसे उकेरते हैं |
बजरों में सजी दुकानों में ,
दूधिया रोशनी के साये में ,
दिखा रहे हर वस्तु सभी को ,
चाहत देने की लेने की ,
अपनी और खींच रही सबको ,
चहल पहल और गहमागहमी ,
सभी आकृष्ट हो जाते हैं ,
और खरीदार बन जाते हैं ,
आवश्यकता का सभी सामान ,
सब यहीं मिल जाता है ,
एक वृहद् बाज़ार नजर आता है |
व्यवहार शिकारे के मालिक का ,
अपनापन लिए हुए होता है ,
सब का ध्यान वे रखते हैं ,
सदा प्रसन्न वे दिखते हैं ,
वे कई बातें बताते हैं ,
अनेक संस्मरण सुनाते हैं ,
क्या पहले घटा क्या बीत गया ,
सारे पलों का हिसाब,
उनके होंठों पर होता है ,
मानों छोटे-छोटे मनकों को ,
कोई धागे में पिरोता है ,
बात चले यदि केशर की ,
केशर की क्यारी दिखाते हैं ,
असली ओर नकली केशर में ,
है क्या अन्तर समझाते हैं ,
घर से कहवा बनवा कर लाते ,
उसका स्वाद चखाते हैं ,
अपनापन अधिक दिखाते हैं |
कश्मीर की सुरम्य वादियाँ ,
चार चिनार की बहार ,
उस पर झील का आकर्षण ,
मन डल झील में खोता जाता है ,
धरती पर स्वर्ग नज़र आता है |
आशा
झील का किनारा एक मदहोश शाम ,
सनोवर के पेड़ों की लम्बी होती छाया ,
पानी में हिलती डुलती जैसे कोई काया ,
है रंगीन फिज़ा ओर अनमोल नज़ारा |
पानी में दिखती हाउस बोट,
भाग जिसके लकड़ी से तराशे गये ,
बाहर और अन्दर का रख रखाव ,
उसमें चार चाँद लगाते हैं ,
अविस्मरणीय उसे बनाते हैं ,
पानी में घर और उसका अक्स ,
दोनों ही मन को लुभाते हैं |
जो लोग वहाँ ठहरते हैं ,
झील का नज़ारा देखते हैं ,
पा प्रकृति की गोद में ख़ुद को ,
अपने को धन्य समझते हैं |
उगता सूरज स्वर्णिम आभा ,
झील का मन मोहक नज़ारा ,
रंगों को कूची में ले कर ,
केनवास पर उसे उकेरते हैं |
बजरों में सजी दुकानों में ,
दूधिया रोशनी के साये में ,
दिखा रहे हर वस्तु सभी को ,
चाहत देने की लेने की ,
अपनी और खींच रही सबको ,
चहल पहल और गहमागहमी ,
सभी आकृष्ट हो जाते हैं ,
और खरीदार बन जाते हैं ,
आवश्यकता का सभी सामान ,
सब यहीं मिल जाता है ,
एक वृहद् बाज़ार नजर आता है |
व्यवहार शिकारे के मालिक का ,
अपनापन लिए हुए होता है ,
सब का ध्यान वे रखते हैं ,
सदा प्रसन्न वे दिखते हैं ,
वे कई बातें बताते हैं ,
अनेक संस्मरण सुनाते हैं ,
क्या पहले घटा क्या बीत गया ,
सारे पलों का हिसाब,
उनके होंठों पर होता है ,
मानों छोटे-छोटे मनकों को ,
कोई धागे में पिरोता है ,
बात चले यदि केशर की ,
केशर की क्यारी दिखाते हैं ,
असली ओर नकली केशर में ,
है क्या अन्तर समझाते हैं ,
घर से कहवा बनवा कर लाते ,
उसका स्वाद चखाते हैं ,
अपनापन अधिक दिखाते हैं |
कश्मीर की सुरम्य वादियाँ ,
चार चिनार की बहार ,
उस पर झील का आकर्षण ,
मन डल झील में खोता जाता है ,
धरती पर स्वर्ग नज़र आता है |
आशा
11 मई, 2010
यादें बचपन की
जब अतीत पर नजर पड़ी
भूली बिसरी यादों से जुड़ी
बचपन की याद सताने लगी
छुटपन की वे प्यारी यादें
निश्छल चंचल मीठी बातें
प्रथम वृष्टि की पहली बूँदें
खिली धूप में जल की बूँदें
मन प्रसन्न हो जाता था
आँगन में खेलना भाता था |
पानी में छप-छप और बरसातें
पन्ना फाड़ कॉपी से अपनी
कागज़ की छोटी नाव बनाना
उसको पानी में तैराना
साथ कश्ती के दूर तक जाना |
नाव यदि गल जाये तो
नाराज़गी मन की दिखलाना
हर एक बात याद आने लगी
फिर बचपन में पहुँचाने लगी |
फिर मन पहुँचा उस बगिया में
घंटो जहाँ खेला करते थे
झूलों पर झूला करते थे
कभी बेंच पर बैठे-बैठे
उड़ती चिड़िया देखा करते थे
धरती पर पड़े रंगीन पंख
कॉपी में सहेजा करते थे |
रंगीन पंख पत्थर और कागज़
बड़ा खज़ाना होते थे
बार-बार उनको दिखलाना
बस्ते में फिर उन्हें छुपाना
मन आह्लादित करता था
स्फूर्ति से मन भरता था |
पास ही एक छोटा तालाब
था जल से भरा रहता
वहाँ कई मछलियाँ रहती थी
वे भी मेरी परिचिता थीं |
बूँद हवा की लेने आतीं
कुछ क्षण सतह पर दिख जातीं
जल्दी से फिर डुबकी लेकर
पानी में नीचे बैठ जातीं
आगे पीछे ऊपर नीचे
तैर कर आगे बढ़ जाना
छोटा सा एक समूह बनाना
कैसे साथ रहा जाता है
सारी दुनिया को दिखलाना
मै भूल नहीं पाती बचपन
ऐसा था वो प्यारा जीवन
प्रथम पाठशाला जीवन की
कितनी बातें सिखा गई
सही राह दिखा गई |
आशा
बचपन की याद सताने लगी
छुटपन की वे प्यारी यादें
निश्छल चंचल मीठी बातें
प्रथम वृष्टि की पहली बूँदें
खिली धूप में जल की बूँदें
मन प्रसन्न हो जाता था
आँगन में खेलना भाता था |
पानी में छप-छप और बरसातें
पन्ना फाड़ कॉपी से अपनी
कागज़ की छोटी नाव बनाना
उसको पानी में तैराना
साथ कश्ती के दूर तक जाना |
नाव यदि गल जाये तो
नाराज़गी मन की दिखलाना
हर एक बात याद आने लगी
फिर बचपन में पहुँचाने लगी |
फिर मन पहुँचा उस बगिया में
घंटो जहाँ खेला करते थे
झूलों पर झूला करते थे
कभी बेंच पर बैठे-बैठे
उड़ती चिड़िया देखा करते थे
धरती पर पड़े रंगीन पंख
कॉपी में सहेजा करते थे |
रंगीन पंख पत्थर और कागज़
बड़ा खज़ाना होते थे
बार-बार उनको दिखलाना
बस्ते में फिर उन्हें छुपाना
मन आह्लादित करता था
स्फूर्ति से मन भरता था |
पास ही एक छोटा तालाब
था जल से भरा रहता
वहाँ कई मछलियाँ रहती थी
वे भी मेरी परिचिता थीं |
बूँद हवा की लेने आतीं
कुछ क्षण सतह पर दिख जातीं
जल्दी से फिर डुबकी लेकर
पानी में नीचे बैठ जातीं
आगे पीछे ऊपर नीचे
तैर कर आगे बढ़ जाना
छोटा सा एक समूह बनाना
कैसे साथ रहा जाता है
सारी दुनिया को दिखलाना
मै भूल नहीं पाती बचपन
ऐसा था वो प्यारा जीवन
प्रथम पाठशाला जीवन की
कितनी बातें सिखा गई
सही राह दिखा गई |
आशा
सदस्यता लें
संदेश (Atom)