17 सितंबर, 2010

एक कवि ऐसा भी

जब भी कुछ लिखता है ,
उसे सुनाना चाहता है ,
कुछ प्रोत्साहन चाहता है ,
पर कोई श्रोता नहीं मिलता ,
जब तक सुना नहीं लेता ,
उसे चैन नहीं आता ,
कोई भूल से फँस जाए ,
कविता सुनना भी ना चाहे ,
बार बार उसे रोक कर,
कई बहाने खोज खोज कर ,
कविता उसे सुनाता है ,
तभी चैन पाता है ,
भूले से यदि मंच पर ,
ध्वनिविस्तारक हाथ में आजाए ,
चाहे श्रोताओं का शोर हो ,
या तालियों कि गड़गड़ाहट,
कुछ अधिक जोश में आ जाता है ,
कविता पर कविता सुनाता है ,
अपने लेखन पर मुग्ध होता ,
कविसम्मेलन कि समाप्ति पर ,
पंडाल खाली देख सोचता,
अभी भीड़ आएगी उसे बधाई देने ,
पर ऐसा कुछ नहीं होता ,
केवल एक पहलवान वहां है ,
उससे प्रश्न करता है ,
कैसा लगा कविसम्मेलन ,
और मेरा कविता पाठ ,
वह तो जैसा था सो था ,
मैं उसे ढूँढ रहा हं ,
जिसने तुम्हें बुलाया था ,
वह आज भी आशान्वित है ,
कहीं से तो बुलावा आएगा ,
कोई उसे सराहेगा |
आशा

16 सितंबर, 2010

बहुत वेदना होती है ,

बहुत वेदना होती है ,
जब कोई बिछुड जाता है,
सदा के लिए चला जाता है ,
बस रह जाती हैं यादें ,
हर क्षण याद आता है ,
मन व्यथित कर जाता है ,
उसका भोला पन ,
और चंचल चितवन ,
इधर उधर थिरकते रहना ,
जब भी पास से गुजरे ,
धीरे से पीछे आना ,
अपने इर्द गिर्द ही पाना ,,
अनगिनत झलकियां उसकी ,
मस्तिष्क पटल पर छा जाती हैं .,
बार बार रुला जाती हैं ,
हर आंसू श्रद्धान्जली बनता है ,
अंजुली भर फूल बनता है ,
उस पर चढा दिया जाता है ,
वह बहुत याद आता है ,
उसकी अदाओं की,
याद भर बाकी रह गई है ,
वह तो शायद भूल गया हो ,
हम उसे भुला नहीं पाते ,
हर पल उसके पीछे ,
साये कि तरह ,
भागना चाहते हैं ,
पर मंजिल तक,
पहुच नहीं पाते ,
वह कहीं शून्य मैं,
विलीन हो गया है ,
हमसे दूर बहुत दूर,
चला गया है |
आशा

14 सितंबर, 2010

यह तो नियति है मेरी

जलना और जलाना है प्रकृति मेरी ,
है आधार मेरे जीवन का ,
मैं सब के काम आती हूं ,
घरों में कल कारखानों में ,
जलती हूं सहयोग करती हूं ,
कभी कष्टों का कारण ,
भी हो जाती हूं ,
हवा और गर्मी ,
सदा मुझे उकसाते हैं ,
वे दौनों हैं बैरी मेरे ,
सोते से जगाते हैं ,
जंगल में हो रगड,
यदि सूखी लकडियों की ,
या शुष्क घास में हो घर्षण ,
मैं सोते से जग जाती हूं ,
घघकती हूं ,उग्र हो जाती हूं ,
होता तवाही पर विराम कठिन ,
जब मुझे बुझाया जाता है ,
ह्रदय से गुबार निकलता है ,
गहरे काले भूरे रंग का,
धुँआ निकलने लगता है ,
घुटन जो छिपी थी मन में ,
जैसे ही बाहर आती है ,
करती हूं शान्ति का अनुभव ,
पानी बर्फ और ठंडी बयार
हैं अन्तरंग मित्र मेरे,
पा कर साथ इनका ,
कहीं दुबक कर सो जाती हूं ,
जब तक उकसाया नहीं जाता ,
मैं नहीं धधकती ,
कोई नुकसान नहीं करती ,
यह तो नियति है मेरी ,
सृष्टि ने जिसे जैसा स्वभाव दिया,
थोड़ा परिवर्तन हो सकता है ,
पर बदलाव मूल प्रवृत्ति में ,
कभी संभव होता नहीं ,
विधाता ने बनाया जिसको जैसा ,
वह वैसा ही रहता है |

आशा

12 सितंबर, 2010

पिंजरे में बंद एक पक्षी

कभी स्वतंत्र विचरण करता था ,
चाहे जहां उड़ता फिरता था ,
जीने की चाह लिए एक पक्षी ,
जब पिंजरे में कैद हुआ था ,
बहुत पंख फड़फड़ाए थे ,
खुले व्योम में उड़ने के लिए ,
मन चाहा जीवन जीने के लिए ,
अपनों से मिलने के लिए ,
अस्तित्व अक्षुण्य रखने के लिए ,
पर सारे सपने बिखर गए ,
हो कर इस पिंजरे में बंद ,
मन ने यह बंधन भी,
स्वीकार कर लिया ,
फिर जब भी पिंजरे का द्वार खुला ,
बाहर जाने का मन न किया ,
शायद भय घर कर गया था ,
बाहर रहती असुरक्षा का ,
पर कुछ समय बाद ,
एक रस जीवन जी कर ,
मन में हलचल होने लगी ,
जब दृष्टि पड़ी उसकी,
अम्बर में विचरते पक्षियों पर ,
स्वतंत्र होने की लालसा ,
बल वती पुनः होने लगी ,
भय का कोहरा छटने लगा ,
ऊर्जा का आभास होने लगा ,
हों चाहे जितनी सुविधाएं ,
और बना हो सोने का ,
पर है तो आखिर पिंजरा ही ,
स्वतंत्रता की कीमत पर ,
क्या लाभ यहाँ रहने का ,
अब समय बर्बाद न कर के ,
बंधक जीवन से मुक्ति पा ,
नीलाम्बर में उड़ना चाहे ,
नए नए आयाम चुने ,
उनमे अपना स्थान बनाए ,
जैसे ही पिंजरे का द्वार खुला ,
बिना समय बर्बाद किये ,
उसने तेज उड़ान भरी ,
पास के वृक्ष की डाली पर ,
बैठ स्वतंत्रता की खुशी में ,
एक मीठी सी तान भरी |
आशा

11 सितंबर, 2010

ज्योत्सना

मैं और तुम ,
सदा से ही साथ रहते हैं ,
नहीं है शिकायत मुझे तुमसे ,
मैं जानना चाहता हूं ,
क्या काले दाग हैं,
मेरे चेहरे पर ,
वे तुमने भी कभी देखे हैं ,
चांदनी ने कहा चाँद से ,
मैं हर पल साथ रहती हूं ,
तुम्हारी शीतल किरणें बिखेरती हूं ,
व्यथित मन को शान्ति देती हूं ,
यांमिनी का सौंदर्य बढा देती हूं ,
यह तुम्हारी ही तो देंन है ,
नदी का किनारा हो ,
और चांदनी रात हो ,
लोग घंटों गुजार देते हैं ,
तुम्हारी स्निग्धता और आकर्षण ,
उन्हें बांधे रहते हैं ,
मैने तुम मैं कोई कमी नहीं देखी ,
यदि तुम्हें कोई दोष देता है ,
वह नहीं जान पाया तुमको ,
मैं बस इतना जानती हूं ,
हूं ज्योत्सना तुम्हारी ,
पृथ्वी पर विचरण करती हूं ,
जैसे ही भोर होती है ,
साथ तुम्हारे चल देती हूं |
आशा

10 सितंबर, 2010

सब से भली चुप

कुछ दिन पहले ही इस मोहल्ले में किराए पर मकान लिया था |तीन चार दिन सामान खोल कर जमाने में लग गए |
मकान बहुत बड़ा था इसलिए बहुत अच्छा लगा |एक दिन जब सो कर उठे बड़ा कोलाहल मच रहा था |बड़ा आश्चर्य हुआ मैने कारण जानना चाहा |पडोसन टीना जी ने बताया कि११० नंबर में रहने वाली आंटी को सब से झगडने में बहुत आनंद आता है |
रोज किसी न किसी के घर जाती हैं और झगडा करती हैं जब तक आधा घंटे तक लड़ नहीं लेती उन्हें मजा नही आता |आज जहां वे खडी हैं आज उनका नम्बर है |
तीन दिन बाद हमारे यहाँ भी आएंगी |और इसके बाद आपका अवसर आएगा |आप अभी से सारे दावपेच सोच कर रखना |मैने सोचा मजाक कर रहीं हैं |पर दो दिन बाद जब टीना जी का घर गुलजार नजर आया ११० नंबर वाली के आने से ,सच मैं मैं तो बहुत घबरा गई |मेरी बहू यह सुन कर बोली," मम्मी आप बिल्कुल चिंता न कीजिए ,बस आप बाहर ना आना मैं सब सम्हाल लूंगी "|
दुसरे दिन नाश्ता कर के उठे ही थे कि जोर जोर से दरवाजे पर प्रहार हुआ |शायद मुसीबत आ गई थी |मैं तो अपने कमरे मैं दुबक कर बैठ गई |११० नम्बर वाली ही आई थी|आते ही शुरू हो गईं |"अरी कहाँ हो क्या यह भी नही मालूम कि कोई
मिलने आया है "|
सीमा ने कहा ,आपको किससे काम है ,मम्मी तो मंदिर गई हैं "|
उन्हों ने तुनक कर कहा "यह भी नहीं कि बैठने को कहो |चाय पानी पूंछो |क्या तुम्हारी माँ ने यही तमीज सिखाया है "
सीमा ने कुर्सी ला कर आँगन में डाल दी |वह पहले तो बैठ गई फिर बोली ,"क्या तुम नहीं बैठोगी ? मैं अकेले ही बैठूं |यह कौनसा तरीका है मेहमान के स्वागत का ?'बिना विराम दिए फिर बोलीं "मैं कोई ऐसी वैसी हूं जो यहाँ बैठूं " |थोड़ी देर बाद
कहने लगी,"क्या तुम्हारी सास ने कुछ भी नहीं सिखाया है ?" लगभग पन्द्रह मिनिट इसी प्रकार बीत गए |
वह एकाएक तुनक कर बोली,"यहाँ तो किसी से बात करना ही फिजूल है ,
मैं कुछ भी कहूँ यह कोई जबाव ही नहीं देती |मेरा तो आज का दिन ही बर्बाद हो गया |अजीब लोग हैं ऐसा पहले कभी नहीं देखा "|
फिर दो चार गालियाँ दीं और दरवाजा खोल कर बाहर को चल दी |सीमा ने चट से दरवाजा बंद किया और चैन की सांस ली |मुझे आवाज लगाई ,"मम्मी जी आप बाहर आ जाइए |अब मुसीबत टल गई है |"
खैर आज सीमा की सूझ बूझ से लड़ने से जान छूटी |किसी ने सच ही कहा है ,"सो बात की एक बात ,सब से भली चुप "|

09 सितंबर, 2010

अधूरी कविता

मैं कविता लिखना चाहता हूं ,
उसे पूरी करना चाहता हूं ,
पर वह अधूरी रह जाती है ,
चाहता हूं परिपूर्णता ,
पर कुछ त्रुटि रह ही जाती है ,
और विचार करते करते ,
सारी रात गुजर जाती है ,
और कलम रुक जाती है ,
जैसे ही तुम्हें देखता हूं ,
मुस्कान तुम्हारे चेहरे की ,
अद्वितीय प्रभाव छोड़ जाती है ,
कविता और निखरती है ,
उसमे मुस्कान सिमट जाती है ,
काले घुंगराले कुंतल ,
जब माथे पर लहराते हैं ,
कांति तुम्हारे चेहरे की ,
कई गुना हो जाती है ,
विचार अंगड़ाई लेते हैं ,
फिर कविता मैं,
एक कड़ी और जुड़ जाती है ,
सुंदर सुगढ़ हाथ देख ,
डूब जाता हूं मैं तुम में ,
तब कलम में गति आती है
कुछ पंक्तियाँ साथ लाती है ,
चाहता हूं सामने बैठो ,
मेरी कल्पना की उड़ान बनो ,
जब डूबूं सौंदर्य के खजाने में ,
कारे कजरारे नयनों की,
भाषा समझ पाऊं ,
तभी पूर्णता ला पाउँगा ,
कविता को सवार पाऊंगा ,
पर यह भय सदा रहता है ,
तुम कहीं व्यस्त ना हो जाना ,
तुम्ही मेरी कल्पना हो ,
तुम ही मेरी प्रेरणा हो ,
मैं जब तुम्हें न पाउँगा ,
कल्पना उड़ान न भर पाएगी ,
कविता अधूरी रह जाएगी
आशा




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