इच्छा अधूरी रही मन में ,
कि दो कदम साथ चलो ,
बेगानों का साथ छोड़ ,
कभी अपनों को भी याद करो ,
यूँ चुप ना रहो अनसुनी न करो ,
कुछ तो बोलो बात करो ,
पर तुम मौन हुए ऐसे ,
खुद को अपने में कैद किया ,
चाहा पर लब नहीं खोले ,
शब्द मुँह से नहीं निकले ,
हो गये इतनी दूर कि ,
यह दूरी नहीं पट पाती ,
गैरों के साथ के अहसास की ,
छाया नहीं मिट पाती,
जब भी मौन टूटे, दिल बोले ,
मन का बोझ हल्का करना हो ,
मुझे याद कर लेना ,
ज़रा सी जगह दिल के कोने की ,
मेरे लिए भी रख लेना ,
किसी और को ना देना ,
शायद यह दूरी मिट जाये ,
कभी मेरी याद आये ,
और इच्छा पूरी हो पाये ,
दो कदम साथ चलने की |
आशा
16 नवंबर, 2010
14 नवंबर, 2010
है तू क्या ?
है तू क्या मैं समझ नहीं पाती
एक हवा का झोंका
भी सह नहीं पाता
खिले गुलाब की पंखुड़ी सा
इधर उधर बिखर जाता
है नाजुक इतना कि
दर्द तक सहन नहीं होता
पंकज सा तैरता रहता
इस नश्वर सरोवर में
नहीं डरता किसी उर्मी से
ना ही आँच आने देता
अस्तित्व पर अपने
संगीत की मधुर स्वर लहरी
जैसे ही तुझे छू जाती
तुझे स्पंदित कर जाती है
पर एक कटु वचन
तुझे हिला भी सकता है
जो भी हो तेरी विशालता
तेरी गहराई नापना मुश्किल है
है तू क्या ?
क्या है विशेष तुझमें
जानना बहुत कठिन है
कवियों ने या शायरों ने
तुझे समझा या ना समझा हो
पर जब भी नया सृजन होता है
तेरा संदर्भ जरूर होता है |
चाँद तारों पर लोग लिखते हैं
पर तुझ पर नगण्य लिखा हो
ऐसा भी नहीं है
दर्द बाँटने की क्षमता की
अदभुद मिसाल है तू
बोझ तले दबा हुआ हो
पर अहसास तक होने नहीं देता
तुझ पर जो भी लिखा जाये
बहुत कम लगता है
सच में बेमिसाल है तू
ए हृदय तुझे कैसे पहचानूँ
किस मिट्टी का बना है तू
है कितनी गहराई तुझ में
इसका आभास ही बहुत है |
आशा
13 नवंबर, 2010
डाल से बिछुड़ा एक पत्ता
घना घनेरा साल वन
ऊँचे-ऊँचे वृक्ष वृन्द
सूर्य किरणों से
हाथ मिलाने की होड़ में
ऊँचे और ऊँचे होते जाते
एक पेड़ की टहनी से
बिछड़ा एक पीला सूखा पत्ता
मंद हवा के साथ-साथ
गोल-गोल घूम रहा
धीमी गति से आते-आते
नीचे की धरती ताक रहा
कई विचारों का मंथन
और मन में उथल पुथल
अपना अस्तित्व तलाश रहा
गहन मनन चिंतन
बहुत बार किया उसने
पर एक ही झटके में
जैसे ही धरती छुई उसने
अपनों से बिछुड़ जाने पर
व्यथित बहुत मन हुआ
कुछ पल भी ना बीते होंगे
एक राहगीर ने अनजाने में
उस पर अपना पैर रखा
जैसे ही पैर पड़ा उस पर
वह बच न सका
टूट गया
अपनों से अलग होने का दुःख
मन ही मन में रह गया
कुछ सोच भी न पाया था कि
स्वयं धूल धूसरित हुआ
धरती में विलीन हुआ
और सो गया चिर निंद्रा में
दूसरी सुबह भी ना देख सका |
आशा
06 नवंबर, 2010
मेरी यादो में ---
मेरी यादों में तू भी,
कभी रोया होगा ,
मेरी तस्वीर को,
आँसुओं से भिगोया होगा ,
पुरानी बातों का जिक्र ,
हर बार हुआ करता था ,
दिल की बातों का इज़हार ,
हो कैसे मालूम न था ,
यूँ बिछुड़ जायेंगे ,
यह सोचा न था ,
कभी ना मिल पायेंगे ,
इसका अन्दाज़ा न था ,
जब भी तेरे साये से ,
लिपट कर रोया मैं ,
सीने में उठे दर्द को ,
सम्हाल ना पाया मैं |
आशा
कभी रोया होगा ,
मेरी तस्वीर को,
आँसुओं से भिगोया होगा ,
पुरानी बातों का जिक्र ,
हर बार हुआ करता था ,
दिल की बातों का इज़हार ,
हो कैसे मालूम न था ,
यूँ बिछुड़ जायेंगे ,
यह सोचा न था ,
कभी ना मिल पायेंगे ,
इसका अन्दाज़ा न था ,
जब भी तेरे साये से ,
लिपट कर रोया मैं ,
सीने में उठे दर्द को ,
सम्हाल ना पाया मैं |
आशा
05 नवंबर, 2010
मन खिन्न हुआ
थी जो अपेक्षा उस पर खरे न उतरे
जाने कितने अहसान किये
पर जताना कभी नहीं भूले
संख्या इतनी बढ़ी कि
भार सहन ना हो पाया
बेरंग ज़िंदगी का एक और रूप नज़र आया
कहने को सब कुछ है पर कहीं न कहीं अंतर है
छोटी-छोटी बातों से
किरच-किरच हो दिल बिखर गया
गहरे सोच में डूब गया
वेदना ने दिये ज़ख्म ऐसे
नासूर बनते देर न लगी
अब कोई दवा काम नहीं करती
अश्रु भी सूख गये अब तो
पर आँखे विश्राम नहीं करतीं
वेदना इतनी गहरी कि
रूठा मन शांत नहीं होता
है इन्तजार उस परम सत्य का
जब काया पञ्च तत्व में विलीन होगी
झूठी माया व्यर्थ का मोह
सभी से मुक्ति मिल पायेगी
वेदना तभी समाप्त हो पाएगी |
04 नवंबर, 2010
और तुलना कैसी
तारों से दमकता आकाश
दीपावली की रात
और सतत टिमटिमाते
माटी के दीपक
घर रोशनी से चमकने लगे
मंद हवा के स्पर्श से
दिये भी धीरे-धीरे
बहकने लगे
ख़ुद पर ही
मोहित होने लगे
तारों से तुलना करने लगे |
जो बात हम में है
उन तारों में कहां
हैं मीलों दूर
हमारी चमक दमक से
और वंचित
सब के प्रेम से
प्यार हमें सब करते हैं
स्नेह से सजाते हैं
तारे तोअपने आप ही
टिमटिमाते हैं !
तारे चुप कैसे रहते
पलट वार किया बोले
है जीवन तुम्हारा
बस एक रात का
जल्दी ही बुझ जाते हो
फिर आते होअगले बरस
हम तो समस्त सृष्टि के दुलारे
रोज यहाँ आते हैं
अमावस की रात्रि को
कुछ अधिक ही सजा जाते हैं
झिलमिलाती चुनरी पहन
जब वह जाती है
बहुत आल्हादित करती है
तभी तो हमारा वर्णन
चाहे जब होने लगता है
माना कविता
तुम पर भी बनती है
पर छाए तो हम रहते हैं
रचनाकार के
मन मस्तिष्क पर |
तुम याद किये जाते
वर्ष में एक बार
हम तो जाने अनजाने
हर दिन याद किये जाते हैं |
विदीर्ण हृदय लिये दीपक
बहुत उदास हो गये
सारी रात जल ना सके
भोर से पहले ही बुझ गये |
जुगनू यह सब सुन रहे थे
बारम्बार सोच रहे थे
हम भी तो चमकते हैं
वीरानों तक को
करते गुलजार
अल्प आयु भी रखते हैं
हैं दीपक जैसे ही
अच्छा है हमसे
कोई ईर्ष्या नहीं रखता
हमारे क्षणिक जीवन का
कोई हिसाब नहीं रखता |
तारों से है क्या बराबरी
जो पूरे अम्बर पर
अधिकार जमाए बैठे हैं
उनसे हो क्यूँ तुलना
वे अपने आप में खोये रहते हैं |
सब में हैं गुण दोष कई
फिर आपस में बराबरी क्यूँ ?
और तुलना कैसी ?
आशा
02 नवंबर, 2010
हो स्वागत कैसे लक्ष्मी का
हो स्वागत कैसे लक्ष्मी का ,
अन्धकार ने घेरा है ,
तेल बाती लायें कहाँ से ,
महँगाई ने घेरा है ,
हर ओर उदासी छाई है ,
कमर तोड़ महँगाई है ,
बाजार भरा पड़ा सामान से ,
पर धन परिसीमित करना है ,
चंद लोगों ने ही त्यौहार पर,
कुछ नया खरीदा है ,
बाकी तो रस्म निभा रहे हैं ,
बेमन से पटाखे ला रहे हैं ,
बच्चों का मन रखने के लिए ,
गुजिया पपड़ी बने कैसे ,
मँहगाई की मार पड़ी है ,
खील बताशे तक मँहगे हैं ,
क्रेता का मुँह चिढ़ा रहे हैं ,
शक्कर की मिठास भी,
कम से कमतर होने लगी है ,
हर चीज फीकी लगती है ,
जब भाव उसका पूछते हैं ,
मन को कैसे समझायें ,
देना लेना सब करना है ,
कहाँ-कहाँ हाथ रोकें ,
हर बात है समझ से परे ,
पसरे पैर मँहगाई के ,
गहरा घना अंधेरा है ,
फिर भी सब कुछ करना है ,
क्योंकि यहीं रहना है ,
हर त्यौहार की तरह ,
दीपावली भी ,
मन ही जायेगी ,
पर आने वाले दो माह का ,
बजट बिगाड़ कर जायेगी |
आशा
अन्धकार ने घेरा है ,
तेल बाती लायें कहाँ से ,
महँगाई ने घेरा है ,
हर ओर उदासी छाई है ,
कमर तोड़ महँगाई है ,
बाजार भरा पड़ा सामान से ,
पर धन परिसीमित करना है ,
चंद लोगों ने ही त्यौहार पर,
कुछ नया खरीदा है ,
बाकी तो रस्म निभा रहे हैं ,
बेमन से पटाखे ला रहे हैं ,
बच्चों का मन रखने के लिए ,
गुजिया पपड़ी बने कैसे ,
मँहगाई की मार पड़ी है ,
खील बताशे तक मँहगे हैं ,
क्रेता का मुँह चिढ़ा रहे हैं ,
शक्कर की मिठास भी,
कम से कमतर होने लगी है ,
हर चीज फीकी लगती है ,
जब भाव उसका पूछते हैं ,
मन को कैसे समझायें ,
देना लेना सब करना है ,
कहाँ-कहाँ हाथ रोकें ,
हर बात है समझ से परे ,
पसरे पैर मँहगाई के ,
गहरा घना अंधेरा है ,
फिर भी सब कुछ करना है ,
क्योंकि यहीं रहना है ,
हर त्यौहार की तरह ,
दीपावली भी ,
मन ही जायेगी ,
पर आने वाले दो माह का ,
बजट बिगाड़ कर जायेगी |
आशा
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