हरीतिमा वन मंडल की
अपनी ओर खींच रही थी
मौसम की पहली बारिश थी
हल्की सी बूंदाबांदी थी
तन भीगा मन भी सरसा
जब वर्षा में तेजी आई
पत्तों को छू कर बूंदे आईं |
पगडंडी पर पानी था
फिर भी पास एक
सूखा साखा पेड़ खडा था
था पत्ता विहीन
था तना भी बिना छाल का |
उसमें कोई तंत न था
जीवन उसका चुक गया था
कई टहनियाँ काट कर
ईंधन बनाया उन्हें जलाया
जब भी कोई उसे देखता
सब नश्वर है यही सोचता |
पहले जब वह हरा भरा था
कई पक्षी वहाँ आते थे
अपना बसेरा भी बनाते थे
चहकते थे फुदकते थे
मीठे फल उसके खाते थे
जो फल नीचे गिर जाते थे
पशुओं का आहार होते थे |
घनी घनेरी डालियाँ उसकी
छाया देती थीं पथिकों को
था वह बहुत उपयोगी
सभी यही कहते थे |
पर आज वह
ठूंठ हो कर रह गया है
सब ने अनुपयोगी समझ
उसका साथ छोड़ दिया है
है यही रीत दुनिया की
उसे ही सब चाहते हैं
जो आए काम किसी के
उपयोगिता हो भरपूर
तभी मन भाए सभी को |
जैसे ही मृत हो जाए
जो कुछ भी पास था
वह भी लूट लिया जाता है
कुछ अधिकार से
कुछ अनाधिकार चेष्टा कर
अस्तित्व मिटा देते हैं उसका
वह आज तो ठूंठ है
कल शायद वह भी न रहेगा
लुटेरों की कमी नहीं है
उनको खोजना न पड़ेगा |
आशा