ना ही कभी पलट कर देखा ,राह भी देखी उसने |
प्रीत की पेंगें बढ़ाई क्यूं ,तुम तो कान्हां निकले |
याद न आई राधा उनको ,जब गोकुल छोड़ चले |
आशा
जाने कितनी यादें
दिल में समाई
जब भी झांका वहाँ
तुम ही नजर आए |
वे सुनहरे दिन
वे उल्हाने वे वादे
सारा चैन हर लेते थे
जाने कब पलक झपकती थी
कब सुबह हो जाती थी |
स्वप्नों के झूलों में झूली
राह देखना तब भी न भूली
अधिक देर यदि हो जाती
बहुत व्यथित होती जाती |
द्वार पर होती आहट
मुझे खींच ले जाती तुम तक
नज़रों से नजरें मिलते ही
कली कली खिल जाती |
वे बातें कल की
भूल न पाई अब तक
हो आज भी करीब मेरे
पर प्यार की वह उष्मा
हो गयी है गुम |
कितने बदल गए हो
दुनियादारी में उलझे ऐसे
उसी में खो गए हो
सब कुछ भूल गए हो |
कोइ प्रतिक्रया नहीं दीखती
भाव विहीन चेहरा रहता है
गहन उदास चेहरा दीखता है
हंसना तक भूल गए हो |
इस दुनिया में जीने के लिए
ग्रंथियों की कुंठाओं की
कोइ जगह नहीं है
उन्हें भूल ना पाओ
ऐसी भी कोइ वजह नहीं है |
खुशियों को यदि ठोकर मारी
वे लौट कर न आएंगी
जीवन बोझ हो जाएगा
मुस्कान रूठ जाएगी |
आशा
आचरण समाज का
है प्याज के छिलके सा
जब तक उससे चिपका रहता
लगता सब कुछ ठीक सा |
हैं अंदर की परतें
समाज में होते परिवर्तन की
प्रतीक लगती हैं
अंदर होते विघटन की |
दिखते सभी बंधे एक सूत्र में
फिर भी छिपते एक दूसरे से
पीठ किसी की फिरते ही
खंजर घुसता पीछे से |
तीव्र गंघ आती है
किसी किसी हिस्से से
यदि काट कर न फेंका उसे
प्रभावित और भी होते जाते |
ये तो हैं अंदर की बातें
बाहर से सब एक दीखते
आवरण से ढके हुए सब
अच्छे प्याज की मिसाल दीखते |
बाह्य परत उतरते ही
स्पष्ट नजर आते
टकराव और बिखराव
उसी संभ्रांत समाज में |
है कितनी समानता
प्याज में और समाज में
छिलके उतरते ही
दौनों एकसे नजर आते |
फिर असली चेहरा नजर आता
खराब होते प्याज का
या विघटित होते समाज का
जैसे ही छीला जाता
आंखें गीली कर जाता |
आशा
न जाने कैसी कहानी थी
कुछ सोचा मनन किया |
वह मन की बात न कह पाई
बस यही गुनाह किया |
यही सोच कर हूँ परेशान
कि ऐसा कैसे किया |
जंगल की आग का अनुभव
उसने कैसे न किया |
हो कर चंचल प्याला छलकता
वह मुखर बनी रहती |
तब कभी उदास न रह पाती
मन पर बोझ न रखती |
कोमल भावनाओं से कभी
यूं न खेलती रहती |
अपने अछूते विचारों पर
सदा विहसती रहती |
है जीवन का नाम
एक एक सौपान चढना
साथ किसी का मिलते ही
बढ़ने की गति द्रुत होना |
इस दुनिया में आते ही
ममता मई गोद मिलती
माँ के प्यार की दुलार की
अनमोल निधि मिलती |
आते ही किशोरावस्था
कोइ होता आदर्श उसका
अनुकरण कर जिसका
अपना मार्ग प्रशस्त करता |
होती कठिनाई तरुणाई में
फंसता जाता दुनियादारी में
कोल्हू के बैल सा जुता रहता
खुद को स्थापित करने मैं |
यदि भूले से पैर फिसलता
गर्त में गिरता जाता
फिर सम्हल नहीं पाता
फँस कर रह जाता मकड़जाल में |
जीवन के अंतिम सौपान पर
जैसे ही कदम रखता
भूलें जो उससे हुईं
प्रायश्चित उनका करता |
फिर दिया जलाता वर्तिका बढाता
जब स्नेह समाप्त होता
हवा के झोके से लौ तेज होती
फिर भभक कर बुझ जाती |
फिर न कोइ सौपान होता
ऊपर जाने के लिए
उसके जीवन की कहानी
बस यूँ ही समाप्त होती |
आशा