भाव आतुर मुखर होने को
दीखता वह सामने
फिर भी शब्द नहीं मिलते
अभिव्यक्ति को |
कोइ बाधा या दीवार नहीं
फिर भी हूँ उन्मना
कहीं कोई अदृश्य रोकता
कुछ कहने को |
यह भी स्पष्ट नहीं
भाव प्रधान हैं या उद्बोधन
उलझी हुई हूँ सुलझाने में
उठते विचारों के अंधड को |
बहुत कुछ है कहने को
पक्ष और विपक्ष में
पर लटक जाता है ताला अधरों पर |
उन्मुक्त भाव दुबक जाते हैं
बस रह जाता है मौन
मन समझाने को |
कभी वह भी खो जाता है
घर के किसी कौने में
रह जाती हूँ मैं अकेली
अहसासों में जीने को |
अहसासों में जीने को |
क्यूँ नहीं सदुपयोग
समय का कर पाती
रहती हूँ दूर -दूर
जीवन की सच्चाई से |
बहुत दूर निकल जाती हूँ
सोच नहीं पाती मैं क्या चाहती हूँ
आग में हाथ जला कर
क्या साबित करना चाहती हूँ ?
आशा