16 दिसंबर, 2013
15 दिसंबर, 2013
14 दिसंबर, 2013
शिक्षा ली सरकार ने
गांधी जी के तीन बन्दर
देते सीख बुरा मत देखो
बुरा मत सुनो ,बुरा मत बोलो
सब लेते सीख अपने हिसाब से
दीखती यह सरकार भी उन जैसी
होता रहता अत्याचार, अनाचार
पर आँखें बंद किये है
कुछ देखती नहीं |
कोई कुछ भी करता रहे
खोले शिकायतों के पुलिंदे
पर वह क्या प्रतिक्रया दे
कानों पर हाथ रखे है
कुछ सुन नहीं सकती |
यदि कुछ देखे सुने
अनजान बनी रहती है
कुछ बोलती नहीं
मुंह पर हाथ रखे है
मौन व्रत लिए है |
रही असफल हर अहम् मुद्दे पर
जुम्मेदार देश की बदहाली के लिए
जो सीख बंदरों से ली
उसका प्रतिफल है यह |
आशा
13 दिसंबर, 2013
12 दिसंबर, 2013
इष्ट मेरा
यह क्षत- विक्षत पहुँच मार्ग
पर है सेतु
तेरे मेरे बीच का |
पग पग आगे बढूँ
ना रुकूं ना ही विश्राम करूं
फिर भी मंथर गति
तीव्र न हो पाती
किरणे तेजस्वी अरुण की
भी मलिन हो जातीं
अरुणोदय से सांझ तलक
कुछ दूरी भी तय न कर पाती
है यह कैसी विडंबना
तेरी छाया तक न छू पाती
पर हूँ दृढ प्रतिज्ञ
कदम मेरे पीछे न हटेंगे
तुझे पा कर ही दम लेंगे
अब आपदाओं का न भय होता
माया मोह से ना कोई नाता
ध्यान तुझी में रहेता
इष्ट मेरा है तू ही
जिसमें सिमटा जीवन मेरा |
आशा
10 दिसंबर, 2013
एक बाल रचना
तितली रानी बड़ी
सयानी
फूल फूल पर
मंडराती
मकरंद सारा चट
कर जाती
फिर ही कहती
प्यास नहीं बुझी
मैं तो प्यासी ही
रही |
पांसा फेकती सुन्दर पंखों का
गुलाब को दुलराती
बहुत प्यार करती है उसको
बारम्बार उसे जताती |
वह उसे समझ नहीं पाता
साथ पा बहुत खुश होता
है कितनी मतलबी
जान नहीं पाता |
पर वह तो है बहुत चतुर
जैसे ही क्षुधा शांत होती
मन भर जाता
उड़ती दूसरा पुष्प तलाशती |
फूल बिचारा सीधा साधा
उसको पहचान नहीं पाता
अपना मित्र जान कर
बार बार गले लगाता |
आशा
पांसा फेकती सुन्दर पंखों का
गुलाब को दुलराती
बहुत प्यार करती है उसको
बारम्बार उसे जताती |
वह उसे समझ नहीं पाता
साथ पा बहुत खुश होता
है कितनी मतलबी
जान नहीं पाता |
पर वह तो है बहुत चतुर
जैसे ही क्षुधा शांत होती
मन भर जाता
उड़ती दूसरा पुष्प तलाशती |
फूल बिचारा सीधा साधा
उसको पहचान नहीं पाता
अपना मित्र जान कर
बार बार गले लगाता |
आशा
09 दिसंबर, 2013
अधोपतन
तू माया की धूप
जिसे वह रोज सेकता
मन को सुकून दे कर
हर पल खोया रहता |
ऐसा लिप्त होता
सुकून भी कूच कर जाता
मद की सरिता में बहता
प्रतिदिन डुबकी लगाता |
मद जब सिर चढ़ कर बोलता
होता सभी
से दूर
खुद में सिमट कर
रह जाता |
रह जाता |
धीरे धीरे मोह उपजता
तृष्णा कम न होती
बड़ी बड़ी बातें तो करता
पर मद से बच न पाता |
जब पलट कर देखता
अपने विगत में झांक कर
क्या से क्या हो गया
विश्वास नहीं होता |
फिसलता जा रहा
पतन की ढलान पर
क्या आत्मा
विद्रोह नहीं करेगी
विद्रोह नहीं करेगी
यूं ही सोती रहेगी |
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