दिन चढ़े सूरज सर पर
हुई धुन सवार
सुर्खाव के पंख लगाकर
की कोशिश पंछी सी `
ऊंची उड़ान भरने की
छूने को नभ में निर्मित
आकृतियों को
रूप बदलते बादलों को
पर उड़ न सकी पटकी खाई
मन कुपित गात शिथिल
फिर भी ललक उड़ने की
गिर कर ही उठना सीखा था
उंगली पकड़ चलना सीखा था
फिर उड़ने में भय कैसा ?
उलझन बढी पर मन न डिगा
यही जज्बा कर गया सचेत
थकावट का नाम न रहा
तन मन हुआ उत्फुल्ल
विश्वास की सीड़ी
इतनी कमजोर भी नहीं
साहस का है साथ
लक्ष्य भी निर्धारित है
तब असफलता से भय कैसा
सफलता जब कदम चूमेंगी
उस पल की कल्पना ही
मन स्पंदित कर देती
एक नया जोश भरती |
एक नया जोश भरती |