07 मई, 2015
06 मई, 2015
पूर्ण परिवार
जन्म जन्म का बंधन
सप्तपदी में समाया
सात वचन मजबूत बंधन
कभी टूट न पाए |
सच्चे दिल से किया समर्पण
वजन बहुत रखता है
सत्य वचन कर्मठ जीवन से
परिवार सवर जाता है |
बच्चे होते सेतु बांध से
घर को बांधे रखते
टकराव होने न देते
सामंजस्य बनाए रखते |
प्यार दुलार के साथ होता
माँ का अनुशासन आवश्यक
पिता की छात्र छाया बिना
घर अधूरा होता |
बिना बहन भाई के रिश्ते
घर की रौनक अधूरी
वह पूर्ण नहीं होता
एक का भी अभाव अखरता |
आशा
05 मई, 2015
क्या मांगूं ?
धरवार है परिवार है
बच्चों की बहार है
कुछ भी कमीं नहीं
प्यार है दुलार है
धनधान्य है सब कुछ है
जीवन में रवानी है
मैं तुझसे क्या मांगूं |
बस अब एक ही
बात है शेष
जीवन की चाह नहीं है
इसी लिए तुझसे
मुक्ति मार्ग मांगूं |
आशा
04 मई, 2015
राधे राधे कृष्ण कृष्ण
जब से शीश नवाया
उन चरणों में
एक ही रटन रही
राधे कृष्ण राधे कृष्ण
आस्था बढ़ती गई
नास्तिकता सिर से गई
गीता पढ़ी मनन किया
गहन भावों को समझा
मन उसमें रमता गया
आज मैं मैं न रहा
कृष्णमय हो गया
नयनाभिराम छबि दौनों की
हर पल व्यस्त रखती है
बंधन ऐसा हो गया है
वह बंधक हो गया है
राधे राधे कृष्ण कृष्ण |
03 मई, 2015
30 अप्रैल, 2015
सीमेंट के जंगल में (मजदूर बेचारा )
मजदूर दिवस पर :-
सीमेंट के जंगल में
मशीनों के उपयोग ने
किया उसे बेरोजगार
क्या खुद खाए
क्या परिवार को खिलाए
आज मेहनतकश इंसान
परेशान दो जून की रोटी को
यह कैसी लाचारी
बच्चों का बिलखना
सह नहीं पाता
खुद बेहाल हुआ जाता
जब कोई हल न सूझता
पत्नी पर क्रोधित होता
मधुशाला की राह पकड़ता
पहले ही कर्ज कम नहीं
उसमें और वृद्धि करता
जब लेनदार दरवाजे आये
अधिक असंतुलित हो जाता
हाथापाई कर बैठता
जुर्म की दुनिया में
प्रवेश करता |
आशा
सीमेंट के जंगल में
मशीनों के उपयोग ने
किया उसे बेरोजगार
क्या खुद खाए
क्या परिवार को खिलाए
आज मेहनतकश इंसान
परेशान दो जून की रोटी को
यह कैसी लाचारी
बच्चों का बिलखना
सह नहीं पाता
खुद बेहाल हुआ जाता
जब कोई हल न सूझता
पत्नी पर क्रोधित होता
मधुशाला की राह पकड़ता
पहले ही कर्ज कम नहीं
उसमें और वृद्धि करता
जब लेनदार दरवाजे आये
अधिक असंतुलित हो जाता
हाथापाई कर बैठता
जुर्म की दुनिया में
प्रवेश करता |
आशा
29 अप्रैल, 2015
है वह ऐसा ही
शून्य में ताकता एक टक
मुस्कुराता कभी सहम जाता
गुमसुम सा हो जाता
चुप्पी साध लेता |
चाहे जहां घूमता फिरता
बिना किसी को बताए
बच्चों की चुहल से त्रस्त होता
पर कुछ न कहता |
लोगों ने उसे पागल समझा
रोका न टोका
कुछ भी न कहा |
आकाश से टपकती जल की बूँदें
उसे उदास कर जातीं
सोचता वे किसी
विरहणी के अश्रु तो नहीं |
उन्हें देख आंसू बहाता
प्रकृति का एक अंश
जाने कहाँ खो जाता
वह सोच नहीं पाता |
कुहू कुहू कोयल की सुनता
अमराई में उसे खोजता
वह हाथ न आती उड़ जाती
वह कारण खोज न पाता |
था यह खेल प्रकृति का
या उसके मन की उलझन
समझ नहीं पाता
अधिक उलझता जाता |
बैठा है आज भी गुमसुम
विचारों का जाल बन रहा
ना हंसना हंसाना
ना ही संभाषण किसी से |
है वह ऐसा ही सब जानते
ना जाने यह तंद्रा कब टूटेगी
वर्तमान में जीने की चाह
मन में जन्म लेगी |
सदस्यता लें
संदेश (Atom)