03 अक्तूबर, 2016

वह मां है तेरी



वह है माँ तेरी
हर समय फ़िक्र तेरी करती
छोटी बड़ी बातें तेरी
उसके मन में घर करतीं
वह जानती तेरी इच्छा
पूरी जब तक नहीं होती
बेफ़िक्र नहीं हो पाती
सुबह से शाम तक
वह बेचैन ही बनी रहती
उसकी ममता तू क्या जाने
जब तक न हो एहसास तुझे
मां का मन कैसा होता 
जब तू हंसती है 
निहाल वह तुझ पर होती
तेरे अश्रु देख 
मन उसका दुखी होता 
तू नहीं जानती
मन मॉम के जैसा होता 
तभी पिघलने लगता है
आठ आठ आंसू रोता है  
जब कष्ट में तू होती है |
आशा


01 अक्तूबर, 2016

आरक्षण

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बचपन से आज तक
एक ही शब्द सुना आरक्षण
हर वर्ग  चाहता आरक्षण
क्या सभी लाभ ले पाते हैं ?
चन्द लोग ही लाभ उठाते हैं
आरक्षण के लाभ गिनाते हैं
सच्चे चाहने वाले

 देखते रह जाते हैं
आरक्षण की मलाई
चंद लोग ही खा पाते हैं
बात यहीं समाप्त नहीं हुई है
कितने सालों तक मिले आरक्षण
इसकी कोई सीमा तो हो
किसको मिले किसे न मिले
नियम तो कोई हों
आरक्षण जिसे मिल गया
वह हुआ बादशाह
अमीर और अमीर हो गया
जिसे थी आवश्यकता
मुंह ताकता रह गया |
आशा

29 सितंबर, 2016

परजीवी



ऐसी जिन्दगी का लाभ क्या
जो भार हुई स्वयं के लिए
हद यदि पार न की होती
भार जिन्दगी न होती |
औरों के लिए कुछ कर न सके
केवल स्वप्न बुनते रहे 
यदि जीवन अपना सवारा होता 
दूर हकीकत से न रहते |
 
दूर सत्य से सदा रहे
आज सत्य सामने है
छोटी बड़ी बातों के लिए
दूसरों पर आश्रित हुए |

आज हुए आश्रित दूसरों पर 
शरीर साथ नहीं देता
खुद कुछ कर नहीं  पाते
परजीवी हो कर रह गए |
आशा



27 सितंबर, 2016

शौक



शौक सहेज कर रखा है
बचपन से लेकर आज तक
उसमें ही डूबी रहती हूँ
सारी उलझने भूल कर
पहले भी अच्छा लगता था
तरह तरह के कपड़े सिलना
उनसे गुड़िया को सजाना
धूमधाम से ब्याह रचाना
आज भी यादों में सजा रखा है
बचपन के उन मित्रों को
उन गलियों को उन खेलों को
रूठना मनाना
खेल से बाहर हो जाना
मनुहार पर वापिस आना
यादों को जीवित रखती हूँ
उन गलियों में जा कर
जो आज भी यथा स्थित हैं
सजोया है यादों को ऐसे
शौक सहेज कर रखा है जैसे |
आशा


26 सितंबर, 2016

तीनों पीढी एक साथ


कमरे में  तस्वीरों पर 
बहुत धूल थी
सोचा उनको साफ करूँ
नौकर से उन्हें उतरवाया 
टेबल पर रखवाया 
डस्तर ले झाड़ा बुहारा
करीने से लगाने को उठाया 
दादा दादी चाचा ताऊ 
हम और हमारे बच्चे
 आगे रखी तस्वीर में
 तीनों पीढी एक साथ देख
 आँखें खुशी से हुई नम
अद्भुद चमक चहरे पर आई
यही तो है मेरी
 सारे जीवन की कमाई
सभी साथ साथ हैं
भरा पूरा है धर मेरा
अलग अलग रहने की
कल्पना तक कभी
 मन में न आई
बरगद की छाँव में
 बगिया मेरी  हरी भरी
मेरे मन को बहुत भाई|

आशा


24 सितंबर, 2016

ग्राम



ग्राम छोटा सा
जीवंत लोग वहां
मस्ती में जीते |

चौपाल पर
शाम ढले आजाते
भजन गाते |

नाचना गाना
ढोल की थाप पर
रोजाना होता |


कच्चा टापरा
द्वार पर खटिया
खेलते बच्चे |

पीपल तले
ठंडी ठंडी छाँव में
राहत मिले |


आम की पाल
खुलेगी आज अभी
ग्राहक आए |

कुए का पानी
गौरी भरने चली
ले कर घड़ा |

गांधी चरखा
सूत कातती बाला
व्यस्त कार्य में |

काम ही काम
नहीं कोई आराम
यही जीवन |


आशा

22 सितंबर, 2016

उर्मियाँ


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लगता है मुझे  मनमोहक
घंटों सागर तट पर बैठना
अंतहीन सागर को निहारना
तरंगों के संग बह जाना |
उत्तंग तरंगें नीली नीली
उठती गिरतीं आगे बढ़तीं
आपस में टकरातीं
चाहे जब विलीन हो जातीं |
प्रातः झलक बाल अरुण की
रश्मियों के साथ दीखती
कभी अरुण को बाहों में भरतीं  
चाहे जब उर्मियों से खेलतीं |
उनका बादलों में छिपना निकलना
छोटी बड़ी लहरों से उलझना
दृश्य मनोहारी होता
मन तरंगित कर जाता |
स्वर्णिम दृश्य ऐसा होता
समूचा मुझे सराबोर   करता
मन उर्मियों सा होता तरंगित
भावविभोर हो बहना चाहता |
अब उठने का मन न होता
ठंडी रेत पर बैठ वहीं 
दृश्य मन में उतारती
स्वप्नों का किला बनाती|
तभी एक लहर अचानक
मुझे भिगो कर चली गई
झाड़ी रेत  भीगे तन से
ठोस धरातल पर पैर टिके|
पीछे लौटी जाने को घर
 सागर तट का मोह  छोड़
बाल अरुण  सुनहरी धूप
 उर्मियों की   लुका छिपी
और स्वप्नों से मुंह मोड़ कर |
आशा