आँखों पर चश्मा हाथ में लाठी
कमर झुकी है आधी आधी
हूँ हैरान सोच नहीं पाती
इतना परिवर्तन हुआ कब कैसे |
है शायद यही नियति जीवन की
इससे भाग नहीं सकते
कितनी भी कोशिश कर लें
इससे मुक्ति पा नहीं सकते |
बने सवरे घंटों पार्लर में बैठे
जाने कब यौवन बीत गया
पर मैं रोक नहीं पाई
आने से वृद्धावस्था के इस पड़ाव को |
अब तो इन्तजार है अगले पड़ाव का
जहां कोई कभी नहीं जगाएगा
किसी बात पर बहस न होगी
मृत्यु उपरान्त की शान्ति रहेगी |
आशा