19 अक्टूबर, 2010

है कितना आकर्षण

तुम नहीं जानतीं ,
है कितना आकर्षण,
समझो या ना समझो ,
मैं कुछ कहना चाहता हूं ,
तुम्हें मांगना चाहता हूं ,
हूं बहुत उलझन में ,
क्या करूं ,किससे कहूं ?
दिन तो कट ही जाता है ,
पर रात काटना बहुत कठिन है ,
मैं तुम्ही में खोया रहता हूं ,
सपनों में तुम्हें देख,
नींद भी धोख दे जाती है ,
तुम्हारी कही हर बात ,
बार बार याद आती है ,
है कारण इसका क्या ,
मुझे नहीं मालूम ,
दिन में याद कहां जाती है ,
रात में ही क्यूं आती है ,
मैं नहीं जानता ,
मेरे लिए क्या सोचा तुमने ,
क्या विचार तुम्हारे मन में ?
पर है इतना अवश्य ,
आकर्षण प्रेम नहीं होता ,
उसे पाने के लिए ,
होता आवश्यक,
मध्यस्त का होना ,
अभी तक सोच नहीं पाया ,
आखिर वह होगा कौन ,
जो तुम तक पहुंचाएगा ,
तुम से संबंध जुड़वाएगा,
यदि तुम भी चाहो ,
और तुम्हारी इच्छा हो,
तभी कोई बात होगी ,
मेरी चाहत पूर्ण होगी ,
अनचाहा रिश्ता नहीं चाहता ,
हो कोई बोझ ह्रदय पर ,
मैं ऐसा भी नहीं चाहता ,
हो संबंध ऐसा,
जिसमें सहमत दौनों हों ,
खुशियां ही खुशियां हों ,
तभी सार्थक होता है ,
सफलता की,
प्रथम सीड़ी होता है |
आशा

17 अक्टूबर, 2010

हुई सुबह सूरज निकला

हुई सुबह सूरज निकला ,
हुआ रथ पर सबार ,
धीमी गति से आगे बढ़ा ,
दोपहर में कुछ स्फूर्ति आई ,
फिर अस्ताचल को चला ,
और शाम होगई ,
मन की बेचैनी और बढ़ गई ,
एकाकी सदासे रहता आया ,
ना कोई संगी नाकोई साथी ,
सूना घर सूना चौराहा ,
था बस तेरा इन्तजार ,
पर तू भी ना आया ,
सुबह से शाम यूंही होगी ,
बिना बात की सजा होगई ,
राह देख थक गई आँखें ,
मन पत्थर सा होने लगा ,
पर आशा की एक किरण ,
कहीं छिपी मन के अंदर ,
उसकी एक झलक नजर आई ,
जब दस्तक दी दरवाजे पर ,
होने लगा स्पंदित मन ,
देख तुझे अरमान जगे ,
मन को कुछ सुकून मिला ,
पत्थर पिघला मोम हुआ ,
सारी बेचैनी सारा गुस्सा ,
जाने कहां गुम हो गया ,
मेरी बगिया गुलजार कर गया |
आशा







,

16 अक्टूबर, 2010

बस एक आस

बस एक आस ,
ओर आत्म विश्वास ,
जीवन में भरते प्रकाश ,
होती इतनी गहराई ,
ओर सच्चाई,
अटूट ह्रदय मै ,
तभी टिक पाता है,
कोइ विचार ह्रदय मै ,
कोइ झूमे वह झूमता है ,
गीतों के साथ गुनगुनाता ,
नहीं चाहता ,
अवसाद कोइ ,
मंथर गति से चलता है ,
गतिमान उसे,
करने के लिए ,
बस काफी है,
एक आस ,
ओर यदि मिल जाए ,
साथ आत्म बिश्वास का ,
तब कोइ नहीं,
रोक पाता ,
विचारों मै,
व्यवधान न आता,
चिंतन मनन,
सतत चलता है ,
निरंतरता उसमे होती है
,जीवन भी,
अस्थिर नहीं रहता ,
बहुत सरल हो जाता है ,
कोइ भी बंधन तब ,
उसे बांध नहीं पाता ,
बहता निर्मल जल सा ,
विचलित ना हो पाता ,
सदा प्रफुल्लित रहता |
आशा

15 अक्टूबर, 2010

है आखिर ऐसा क्या

प्रकाश सदा सोचता था ,
है आखिर ऐसा क्या ,
आते ही उसके ,
अन्धकार कहीं छिप जाता है ,
हर बार विचार आता था ,
ऐसा क्यूँ करता है ,
कमरे में एक दिन ,
अचानक प्रकाश जा पहुंचा ,
उसे देख अन्धकार ,
पिछले कमरे में दुबक गया ,
प्रकाश चुप ना रह पाया ,
बोला इतना क्यूँ डरते हो ,
मैं जब भी आता हूँ ,
मिलना भी नहीं चाहते ,
चल देते हो |
धीरे से झाँक कर ,
तम सहमा सा बोला ,
मैं तुमसे डरता हूँ ,
ओर तुम्हारी आभा से |
उन लोगों की बातों से ,
जो कहते हें ,
जब तुम होते हो ,
हर और उजाला होता है ,
वे तभी कार्य करपाते हें ,
उन्हें तुम्हारा ही,
इन्तजार रहता है |
मेरे कदम पड़ते ही ,
भूत पिशाच नजर आते हें ,
तांत्रिक जाल बिछाते हें ,
कुछ शमशान जगाते हें ,
कई गुनाह पलते हें ,
बदनाम मुझे कर देते हें ,
साए में मेरे ,
काम भी काले होते हें |
यह सत्य नहीं है भाई ,
तुममे हें गुण इतने ,
क्या कभी विचार किया तुमने ,
यदि छत्र छाया,
तुम्हारी ना होती ,
विश्राम सभी कैसे करते ,
चाँद तारे स्वागतार्थ तुम्हारे ,
सदा तत्पर कैसे रहते |
अन्धकार फिर मुखर हुआ ,
कई रंग छिपे हें तुममे ,
कभी अलग तो कभी साथ ,
दिखता रंगों का चमत्कार ,
मेरा है बस एक रंग ,
वह भी सौंदर्य से कोसों दूर ,
उन्हीं को साथ लिए फिरता हूं ,
हें जो खानअवगुणों की ,
मैं तुमसा कभी ना हो पाउँगा ,
इसी लिए दूर रहता हूं |
प्रकाश चुप ना रह पाया ,बोला
सब सर्वगुण संपन्न हीं होते ,
कई बार मेरे क्रोध की तीव्रता ,
बहुतों को कष्ट देजाती है ,
ना तुम पूर्ण हो और नाही मैं ,
साथ यदि रहना भी चाहें ,
प्रकृति साथ नहीं देती ,
इसी लिए हें हम तुम अलग ,
पर दुश्मन नहीं हें |
आशा

12 अक्टूबर, 2010

सादर वंदन

हे सुमन ,तुम हो शिव ,हो मंगल ,
तुम्हें मेरी सादर वंदन ,
जब तुम थे बाल सुमन ,
लोग बहुत प्यार देते थे ,
तुम्हें अनवरत देखा करते थे ,
जैसे जैसे वय बढ़ती गई ,
सौंदर्य बोध ने बहकाया ,
मदिरा का प्याला भी छलकाया,
पर कर्तव्यों से पीछे न हटे ,
हर चुनौती की स्वीकार ,
कहीं भी असफल ना रहे ,
नियमित जीवन संयत आचरण ,
जीवन के थे मूल मंत्र ,
अध्ययन ,मनन और चिंतन ,
में थी गहन पैंठ ,
मूर्धन्य साहित्यकार हुए ,
तुम्हारी कृतियों की,
कोई सानी नहीं है ,
प्रशंसकों की भी कमी नहीं है ,
इस दुनिया से दूर बहुत हो ,
पर कण कण में बसे हुए हो ,
साँसों का हिसाब किया करते थे ,
आज हो बहुत दूर उनसे ,
पहचान यहाँ की है तुमसे ,
हो वटवृक्ष ऐसे ,
जिसके आश्रय में आ कर ,
कई हस्तियाँ पनप गईं हें ,
आकाश की उचाई छू रही हें ,
है मेरा तुमको सादर नमन |
आशा

11 अक्टूबर, 2010

वे बेवफा नहीं हें

उदास होते हुए भी ,
दुखी नहीं हूं ,
है विश्वास खुद पर ,
लाचार नहीं हूं ,
सताया बहुत दुनिया ने ,
पर दोषी नहीं हूं ,
ना चाहते हुए भी ,
चुप हूं ,
कहना बहुत है ,
पर मौन हूं ,
जोड़ा है नाता,
ग़मों से ,
हाथ मिलाया,
है उनसे ,
क्यूँ कि वे ,
बेवफा नहीं हें,
है दुनिया उनकी भी ,
अब उसी में,
खो गई हूं ,
पर बातें कल की,
याद जब आतीं हें ,
जग की,
निष्ठुरता की ,
पहचान कराती हें ,
जान गई हूं ,
समझ गई हूं ,
है क्या अर्थ,
निष्ठुरता का ,
साहस भी है,
कहने का ,
पर शब्द होंटों तक ,
आकर लौट जाते हें ,
परिणीति है यह ,
ग़मों के साथ जीने की ,
उन्हीं में,
डूबे रहने की ,
उनसे सीखी,
सहनशीलता ,
और सीमाएं उसकी ,
वे सदा,
साथ निभाते है ,
जब भी हाथ बढाया ,
साथ खड़े,
हो जाते हें ,
मित्रता निभाते हें ,
कितनी भी विषम ,
परिस्थिती हो ,
मैं उन्हीं में,
डूबी रहती हूं ,
तभी अपने को ,
सम्हाल पाती हूं |
आशा

10 अक्टूबर, 2010

हे शक्ति दायनी


हे शक्तिदायानी वर दायनी ,
हे कल्याणी ,हे दुर्गे ,
तुम्हारे द्वार पर जो भी आता ,
खाली हाथ नहीं जाता ,
पूर्ण कामना होती उसकी ,
जो भी तुम्हें मन से ध्याता ,
है उसकी झोली खाली क्यों?
उसने तो सभी यत्न किये ,
तुम्हें पूरी तरह मनाने के ,
भक्ति भाव में डूबा था ,
फिर रही कहाँ कमी ,
यदि इसका भान करा देतीं,
कठिन परीक्षा ना लेतीं ,
वह भव सागर से तर जाता ,
इस जीवन से मुक्ति पाता ,
उसकी झोली खाली थी ,
आज तक भी भरी नहीं है ,
कोई उपाय सुझाया होता ,
वह ठोकर नहीं खाता ,
यदि गिरता भी तो सम्हल जाता ,
बड़े अरमान थे बेटी के ,
तुम बेटी बन कर आजातीं ,
वह तुम्हारे और निकट होता ,
तुम में ही खोता जाता ,
यश गान तुम्हारा सदा करता ,
संतुष्टि का अनुभव करता |
आशा