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30 मई, 2015
जल बरसा
जल बरसा
आँखों से छमछम
रिसाव तेज |
रुक न सका
लाख की मनुहार
बहता रहा |
वर्षा जल सा
कपोल की राह पर
बहता गया |
अश्रु जल के
निशान बन गए
सूखे कपोल |
आशा
29 मई, 2015
बूँद
बूँदें स्नेह की
मन पर पड़तीं
प्यार जतातीं |
बूंदे जल की
धरा पर बरसीं
पृथ्वी सरसी |
जल संचय
बूँद बूँद से होता
घट भरता |
जल से भरा
सर पर सोहता
घट छलका |
बूँदें जल की
नयनों से बरसीं
रुक न सकीं |
बहते अश्रु
सागर के जल से
कपोल भीगे |
बूँदें ओस की
पुष्पों पर दीखतीं
हुई सुबह |
नव पल्लव
हो गए शवनमी
ओस जल से |
आशा
28 मई, 2015
फ़साने कल के
जागती आँखों के आगे से
गुजरे बीते कल के फ़साने
एक के बाद एक
ठेस लगी मन को |
वह आहत हुआ
चोटिल हुआ
आज तक भूल न पाया
गुजरे हुए कल को|
जाने कैसे दबी आग से
चिंगारी उठी
हवा ने उसको बहकाया
आग में परिवर्तित हुई |
मन धूं धूं कर जलने लगा
ठंडी बयार के एक झोंके ने
मलहम का काम किया
अग्नि को ठंडा किया |
समय तो लगा
पर मन की पीड़ा को शांत किया
धीरे धीरे सहज हुई
कटुता से मुख मोड़ा |
फिर भी मन के किसी कौने में
बीते कल ने पैर पसारे
फ़लसफ़े मन से न गए
कहीं दुबक कर रह गए |
अनुभव इतने कटु हों क्यूं
जो सुख चैन मन का हरें
रिश्तों में घुली कड़वाहट
बार बार आक्रामक हो |
आशा
26 मई, 2015
विविध रूप धरा के
अदभुद है यह
धरा
जिस विधि उसे निहारें
नयी सी लगे
मन चकित करे |
प्रातः दुपहर संध्या बीते
फिर साम्ऱाज्य अन्धकार का होता
यही क्रम चलता रहता
परिवर्तन कभी न होता |
सागर नदियाँ पर्वत माला
मरू भूमि भरी सिक्ता कण से
कही धरा पर हरियाली है
दलदल की भी कमीं नहीं |
सागर में अथाह जल खारा
प्यास तक बुझा न पाता
है
अनगिनत जीवों की शरणस्थली
अमूल्य संपदा छिपी यहाँ
|
नदियाँ मीठा जल लातीं
जब सागर से मिलतीं
बहुत कुछ बहा कर ले जातीं
हरेभरे मैदान धरा का रूप निखारते |
दीखती शांत बहुत पर
क्रोधित भी हो जाती जब तब
भूकम्प
भूस्खलन अति वृष्टि
हैं वक्र दृष्टि की देंन
उसकी |
अधिक क्रोध जब सह न पाती
ज्वालामुखी कहीं
हो जाती
आग उगलती लावा बहता
जब क्रोध से उबरती |
है आखिर वह भी जननी
माता सी स्वभाव में
कभी नरम तो कभी गरम
फिर भी अपनी गरिमा रखती |
है वह बहुआयामी
चाहे जब रूप बदलतीं
सृष्टि की जन्म दात्री
किसी से न हारती |
आशा
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