05 जुलाई, 2010

कल भारत बंद है

चिंकी पिंकी लो यह पर्चा ,
जल्दी से सौदा ले आओ ,
शायद तुमको पता नहीं ,
कल बाजार बंद है |
सुनो ज़रा अपने पापा को भी ,
मोबाइल तुम कर देना ,
आज जरा जल्दी आ जाएं ,
कल की भी अर्जी दे आएं ,
कल जाना न हो पाएगा ,
गाड़ी के पहिये थम जाएंगे ,
कल तो भारत बंद है |
एक थाली भी चुनना है ,
मंहगाई का विरोध करना है ,
पर टूटी थाली ही चुनना ,
नई नहीं कोइ चुनना |
बजा बजा कर थाली को
तो तोड़ा जा सकता है ,
पर कमर तोड़ मंहगाई का ,
क्या कोइ हल निकल सकता है ?
हर बार बंद होते हैं ,
वे सफल भी होते है ,
हर बार यही दावा होता है ,
पर असर उल्टा होता है,
मंहगाई और बढ़ती जाती है |
इस बार न जाने क्या होगा ,
पर दिन भर के रुके कामों का,
जो भी हर्जाना होगा ,
उसकी भरपाई कौन करेगा ?
जब भी ऐसे बंद होते है ,
मंहगाई और बढा जाते है ,
आम आदमी ही पिसता है ,
पर वह यह नहीं समझता है |
आशा

04 जुलाई, 2010

सत्यता जीवन की

तरह तरह के लोग ,
आसपास जब होते हें ,
सब एक जैसे नहीं होते ,
कुछ विनम्र दीखते हैं ,
कई उग्र हो जाते है ,
कुछ ऐसे भी होते हैं ,
मीठी छुरी बने रहते हैं |
कटुता मन मैं विष भरती है
नहीं किसी को फलती है ,
सारी कटुता को बिसरा कर ,
क्षमा उसे यदि कर पाएं ,
अपनी गलती यदि खोजी ,
मन मैं पश्चाताप किया ,
हर क्षण खुशी से भर जाएगा ,
बीता कल हावी नहीं होगा ,
सारी कटुता बहा ले जाएगा ,
जीने का सही मार्ग यही है ,
मेरा अपना विश्वास यही है ,
भविष्य में क्या होना है ,
इसकी तो चिंता रहती है ,,
जीवन सफल बनाने की ,
मन में अभिलाषा रहती है ,
जो कल किया और आगे करना है ,
कठिन समस्या रहती है |
आगे बढने की प्रतिस्पर्धा में ,
बैचेनी भी रहती है ,
तटस्थ भाव से यदि देखें ,
भौतिकता सब कुछ नहीं होती ,
मन को संतोष नहीं देती ,
कुछ काम ऐसेभी है ,
जो मन को शांति देते हैं ,
इसी सकून को पाने के लिए ,
निष्काम भाव से जीना होगा ,
बैर भाव और कटुता को ,
खुद से दूर रखना होगा ,
प्रकृति हर नुकसान की ,
भरपाई तभी कर पाएगी ,
जब यह विश्वास जाग्रत होगा ,
सही मार्ग मिलता जाएगा ,
सफलता तुम्हारे कदम चूमेंगी ,
खुशियों से तुमको भर देंगी ,
सदा तुम्हारे साथ चलेगी ,
जीवन आनन्दित कर देगी
आशा

03 जुलाई, 2010

क्षितिज

है अनंत यह आसमान ,
इसका कोई छोर नहीं ,
दूर क्षितिज में जब भी देखा ,
धरती आकाश को मिलते देखा ,
जब अधिक पास जाना चाहा ,
उनको दोराहे पर पाया ,
यह तो केवल भ्रम ही है ,
कि क्षितिज दौनों को मिलाता है ,
सारी दुनिया यही समझती है ,
यह वही जगह है ,
जो पृथ्वी आकाश की मिलन स्थली है ,
जिंदगी का क्षितिज भी ,
न कोई खोज पाया ,
यह कल्पना से परे ,
एक उलझी हुई पहेली है ,
जिसने उसे हल करना चाहा ,
खुद को और उलझता पाया |
आशा

मेरा जीवन सागर जैसा

मेरा जीवन सागर जैसा ,
और उन्माद सागर उर्मी सा ,
सागर की उथलपुथल ,
अनेक आपदाएं लाती है ,
जो भी फंस जाए उसमे ,
अपनी जान से जाता है ,
सागर शांत जब होता है ,
आकर्षित सब को करता है |
मुझ में जब उफान आता है ,
असंयत ब्यवहार हो जाता है ,
क्या गलत किया मैने ,
अहसास बाद में होता है ,
पर पहले इसके ,
जाने कितना समय ,
व्यर्थ हो जाता है|
क्षतिपूर्ति नहीं होती ,
मन अशांत हो जाता है ,
केवल इतना ही नहीं होता ,
हीन भावना भी बढ़ती है ,
फिर जिंदगी में असफलता की ,
एक और कड़ी जुड़ जाती है |
जब कभी मुड़ कर देखता हूं ,
आत्म विश्लेषण भी करता हूं ,
बहुत देर हो जाती है ,
बाजी हाथ से निकल जाती है |
असंयत ब्यवहार मेरा ,
दूसरों को दुखी करता है ,
कोइ जाने या न जाने ,
मैं भी दुखी होता हूं |
हर बार यही सोचता हूं ,
यदि खुद में परिवर्तन ला पाऊं ,
सागर की तरह शांत हो जाऊं ,
तब कितना अच्छा जीवन होगा ,
कोइ न मेरा बैरी होगा |
यह सब मैं जानता हूं ,
समझता भी हूं ,
पर कमीं है आत्मसंयम की,
भावनाएं अनियंत्रित हो जाती हैं ,
बड़ी बड़ी लहरों की तरह ,
बहुत उत्पात मचा जाती हैं ,
समय हाथ से निकल जाता है ,
मुठ्ठी में भरी रेत, की तरह फिसल जाता है ,
सोचता हूं अब मैं ,
किसी ऐसे की शरण में जाऊं ,
सही शिक्षा यदि पाऊं ,
मेरा अशांत मन ,
फिर से शांत हो जाएगा ,
आध्यात्म की ओर झुक जाएगा
आशा

02 जुलाई, 2010

एकाकी जीवन मेरा

छोटीसी जिंदगी होती है
कई अनुभवों से भरी हुई
जैसे एकाकी जीवन मेरा
पेड़ से टूटे पत्ते सा
वह जीवन ही क्या
सुख ने ना झंका जिस में
दुखों ने किनारा न किया
केवल असंतोष को जन्म दिया |
जब दुःख परचम फहराता है
मन बहुत खिन्न हो जाता है
हर समय का अकेलापन
बहुत उदास कर जाता है |
परेशानी हावी हो जाती है
नीरस जिंदगी हो जाती है
अकेलेपन से बचना चाहती है
खालीपन भरना चाहती है |
कई बार आंसूं भी
नदी में उफान की तरह आते हैं
झरने की तरह झर झर बहते जाते हैं
और अधिक उदास कर जाते है
मैं अकेला ही निकला हूं
ऐसी जिंदगी की तलाश में
जहां दुःख का साया ना हो
यदि आंसू आएं भी तो खुशी के हों
और साथी हो तो ऐसा हो
जब भी मेरे साथ चले
मेरे एकाकी जीवन मैं
रंग खुशियों के भर दे |
आशा

01 जुलाई, 2010

दर्पण

दर्पण के सामने जो भी आया
उसने उसका रूप दिखाया
वह दांये को बांया,बाएं को दांया
 दिखलाता अवश्य   है
फिर भी सब कुछ
दिख ही जाता है |
चेहरे पर जो भी भाव आए
स्पष्ट दिखाई दे जाते हैं
सुख हो  या दुःख 
शीशे में दिख ही जाते हैं |
मुखोटा यदि चेहरे पर हो
भाव कहीं छिप जाते हैं
जैसे ही वह हटता है
वे साफ उभर कर आते हैं |
जब रंग मंच का उठता है पर्दा
नाटक का प्रत्येक पात्र
अभिनय कर कुछ दर्शाता है
कलाकार का असली चेहरा
रंग मंच पर खो जाता है
पात्र यदि भाव प्रवण न हो
नाटक नीरस हो जाता है |
फिर से दर्पण में निहार कर
खुद को जब खोजना चाहे
मन में छिपे दर्द को उसके
दर्पण भी न पहचान पाए
 दिखाई देता है चेहरा उसमें
पर मन में छिपे भावों को
वह भी नकार देता है
विष कन्या सुन्दर दिखती थी
पर रोम रोम में भरा विष
दर्पण नहीं देख पाता था
वह तो बाह्य सुंदरता का ही
आकलन कर पाता था
सुंदरता चार चाँद लगाती है
ब्यक्तित्व को निखारती है
कई तरह के प्रसाधनों से
यदि कोई रूप सवारता है
दर्पण में निहारता है
वह सुन्दर भी दिखने लगता है
यदि कोइ कमी रह जाए
दर्पण तुरंत पकड़ लेता है |
सब सुन्दर नहीं होते
यह दर्पण भी समझता है
यदि सारे सुन्दर चहरे
दर्पण के सामने आएंगे
तो बेचारे कुरूप कहाँ जाएंगे |
आशा

मैं तो एक शमा हूं ,

मैं जलती हुई शमा हूं
यह कैसे समझाऊं परवानों को
तरह तरह की भाषा जिनकी
और जाति भी जुदा जुदा |
बिना बुलाये आते हैं
जब तक कुछ कहना चाहूं
जल कर राख हो जाते हैं
बदनाम मुझे कर जाते है |
मैं जलती हूं रोशनी के लिए
सब को राह दिखाने के लिए
एक रात का जीवन मेरा
नहीं चाहती अहित किसी का |
इसी लिए तो कहती हूँ
 यहां रात में क्या रखा है
छोटा सा जीवन है तुम्हारा
आज नहीं तो कल जाना है
जीवन का अंत तो होना है
दिन के प्रकाश में तुम जाओ
उन अतृप्त चिड़ियों के पास
जिनका भोजन यदि बन पाओ
तृप्त उन्हें तुम कर सकते हो
तब यह तो लोग न कह पाएगें,
मैं जलती हूं तुम्हारे लिए
रिझाती हूं तुम्हें
अपने पास आने के लिए |
तुम एक बात मेरी सुन लो
फिर से मेरे पास न आना
मरने की यदि चाहत ही हो
उन चिड़ियों के पास चले जाना
यदि मेरी बात रास न आए
तुमको यदि यह ना भाए
तब कहीं और चले जाना
फिर से बापस ना आना |
आशा