24 जनवरी, 2012

अपेक्षा

हूँ स्वतंत्र ,मेरा मन स्वतंत्र
नहीं स्वीकार कोइ बंधन
जहां चाहता वहीं पहुंचता
उन्मुक्त भाव से जीता
नियंत्रण ना कोइ उस पर
निर्वाध गति से सोचता
जब मन स्वतंत्र
ना ही नियंत्रण सोच पर
फिर अभिव्यक्ति पर ही रोक क्यूं ?
जब भावना का ज्वार उठता
अपना पक्ष समक्ष रखता
तब वर्जना सहनी पडती
अभिव्यक्ति परतंत्र लगती |
कानूनन अधिकार मिला
अपने विचार व्यक्त करने का
कलम उठाई लिखना चाहा
कारागार नजर आया |
अब सोच रहा
है यह किसी स्वतंत्रता
अधिकार तो मिलते नहीं
कर्तव्य की है अपेक्षा |
आशा








19 जनवरी, 2012

आशा अभी बाकी है



                                                                            
फैली उदासी आसपास 
झरते  आंसू अविराम 
अफसोस है कुछ खोने का 
अनचाहा घटित होने का |
आवेग जब कम होता 
वह सोचता कुछ खोजता 
एकटक देखता रहता 
दूर  कहीं शून्य में |
हो  हताश कुछ बुदबुदाता 
जैसे ही कुछ याद आता 
निगाहें उठा फिर ताकता
उसी अनंत में |
छलकते आंसुओं को 
रोकने की चेष्ठा कर 
धुंधलाई आँखों से झांकता 
फिर से परम शून्य में 
जाने कितने अस्तित्व 
समा गए अनंत में 
फिर भी खोजता अनवरत 
गंभीर सोच जाग्रत होता 
अशांत मन में |
जो चाहा पूर्ण न हो पाया 
प्रयत्न अधूरा रहा फिर भी 
है सफलता से दूर भी 
पर  आशा  अभी बाकी है |
आशा 





15 जनवरी, 2012

क्यूँ न वर्तमान में जी लें

बैठे आमने सामने देखते
 बनती मिटती कभी सिमटतीं 
आती जाती लकीरें चेहरों पर
मुस्कान  ठहरती कुछ क्षण को 
फिर कहीं तिरोहित हो जाती 
भाव भंगिमा के परिवर्तन
परिलक्षित करते अंतर मन |
वे सब भी क्षणिक लगते 
होते हवा के झोंके से 
जो आए ले जाए 
उन  लम्हों की नजाकत को 
लगते कभी  स्वप्नों से 
प्रायः  जो सत्य नहीं होते 
कुछ पल ठहर विलुप्त होते |
भिन्न नहीं  है दरिया भी 
बहता जल उठाती लहरें 
टकरा कर चट्टानों से 
मार्ग ही बदल देते 
अवरोध  को नगण्य मान 
बहती जाती अविराम 
पर  चिंतित, कब जल सूख जाए 
अस्तित्व  ही ना गुम हो जाए 
यही  सोच पल भर मुस्काते 
सुख दुःख तो आते जाते
है जीवन क्षणभंगुर 
क्यूँ न वर्त्तमान में जी लें |
आशा 









 



12 जनवरी, 2012

मृग तृष्णा

जल देख आकृष्ट हुआ 
घंटों  बैठ अपलक निहारा 
आसपास  था जल ही जल
प्यास जगी बढ़ने लगी |
खारा पानी इतना कि 
बूँद  बूँद जल को तरसा  
गला  तर न कर पाया 
प्यासा था प्यासा ही रहा |
तेरा प्यार भी सागर जल सा 
मन  ने जिसे पाना चाहा 
पर  जब भी चाहत उभरी 
 खारा जल ही मिल पाया |
रही  मन की प्यास अधूरी 
मृग  तृष्णा सी बढती गयी 
जिस जल के पीछे भागा 
मृग  मारीचिका ही नजर आई |
सागर  सी गहराई प्यार की
आस अधूरी दीदार की 
वर्षों बीत गए
नजरें टिकाए द्वार पर|
मुश्किल से कटता हर पल
तेरी राह देखने  में
आगे  होगा क्या  नहीं जानता 
फिर  भी बाकी है अभी आस
 और प्यास तुझे पाने की |
आशा 


















10 जनवरी, 2012

गहन विचार

गहन गंभीर जटिल विचार 
बहते   जाते  सरिता जल से 
होते प्रवाह मान  इतने
रुकने का नाम नहीं लेते |
है गहराई कितनी उनमें 
नापना भी चाहते 
पर अधरों के छू किनारे 
पुनःलौट लौट आते |
कभी होते तरंगित भी 
तटबध तक तोड़ देते
मंशा रहती प्रतिशोध की 
तब किसी को नहीं सुहाते |
तभी  कोइ विस्फोट होता 
हादसों का जन्म होता 
गति बाधित तो होती 
पर पैरों की बेड़ी न बनती |
सतत अनवरत उपजते बिचार 
गति पकड़ आगे बढ़ते 
बांह समय की थाम चलते 
प्रवाहमान बने रहते |

आशा




07 जनवरी, 2012

स्याही रात की

जब गहराती स्याही रात की
बेगानी लगती कायनात भी
लगती चमक तारों की फीकी
चंद्रमा की उजास फीकी |
एक अजीब सी रिक्तता
मन में घर करती जाती
कहर बरपाती नजर आती
हर आहट तिमिर में |
सूना जीवन उदास शाम
और रात की तनहाई
करती बाध्य भटकने को
वीथियों में यादों की |
बढ़ने लगती बेचैनी
साँसें तक रुक सी जातीं
राह कोई फिर भी
नहीं सूझती अन्धकार में |
क्या कभी मुक्ति मिल पाएगी
इस गहराते तम से
सूरज की किरण झाँकेगी
बंजर धरती से जीवन में |
कभी तो रौशन हो रात
शमा के जलने से
यादों से मुक्त हो
खुली आँखों में स्वप्न सजें |
आशा



04 जनवरी, 2012

अफवाहें

उडाती अफवाहें बेमतलब 
तुमने शायद नहीं सुनीं 
जब सामने से निकलीं 
लोगों ने कुछ सोचा और |
मन ही मन कल्पना की 
कोइ सन्देश दिया होगा 
तुम मौन थीं तो क्या हुआ 
आँखों से व्यक्त किया होगा |
कुछ  मन चले छिप छिप  कर
सड़क किनारे खड़े हुए 
इशारों से बतियाते रहते 
छींटाकशी से बाज न आते |
हम तुम तो कभी भी
आपस  में रूबरू न हुए
ना कभी आँखें हुईं चार
ना ही उपजा कभी प्यार |
फिर  भी ऐसा क्यूँ ?
मनचलों बेरोजगारों की
शायद फितरत है यही
कटाक्ष  कर प्रसन्न होने  की |
मन  ही मन ग्लानी होती है
उनकी सोच कितनी छोटी है
यदि अफवाहें तुम तक पहुंची
तुम भी क्या वही सोचोगी
जो मैं सोच रहा हूँ ?
आशा