22 अप्रैल, 2012

उसे क्या कहें

मखमली दुर्वा को गलीचा समझ 
की अटखेलियाँ किरणों से 
फिर भी गहरी उदासी से 
मुक्ति ना मिल पाई 
निहारता दूर क्षितिज में
नेत्र बंद से होने लगते 
 खो जाता दिवा स्वप्न में 
सत्य से बहुत दूर 
नहीं चाहता कोई कुछ कहे 
है वह क्या ?आइना दिखाए 
कठिनाइयों से भेट कराए 
भूले से यदि हो सामना 
निगाहें चुराए मिलना ना चाहे
या फिर आक्रामक रुख अपनाए 
कैसे  बीता कल भूल गया 
ना ही चाहता जाने 
होगा क्या कल 
प्रत्यक्ष से भी दूर भागता 
ऐसे ही जीना वह चाहता 
उसे क्या कहें |
आशा


14 अप्रैल, 2012

सौगात कुशलता की

गीली मिट्टी घूमता चाक 
आकार देते सुघड हाथ 
आकृतियाँ जन्म लेतीं 
हरबार नया आभास देतीं 
संकेत होता वही 
हाथों की कुशलता का
मनोंभावों की पूर्णता का 
यदि कहीं कमीं रहती 
मानक पर खरी नहीं उतरती 
वह  सहन नहीं होती 
नष्ट करदी जाती 
मिट्टी  मिट्टी में मिल जाती 
ब्रह्मा ने सृष्टि रची होगी 
ऐसे ही किसी चाक पर 
निर्मित हुईं कई कृतियाँ 
भिन्न भिन्न आकार लिए 
हर आकृति कुछ भाव लिए 
समानता होते हुए भी 
स्व का भाव लिए 
है  जाने क्या ऐसी माया 
दिखने में सभी एक जैसे 
फिर भी होते अलग से 
चाक निरंतर चलता रहता 
वही मिट्टी वही रण 
वही बनाने का ढंग 
फिरभी यह विभिन्नता 
लगती सौगात  कुशलता की
मन में उठते भावो की 
उनकी सजीव अभिव्यक्ति की
आशा






09 अप्रैल, 2012

जिंदगी को भरपूर जिया है


मैंने जिंदगी को
कई कोणों से देखा है
हर कोण है विशिष्ट
हर रंग निराला है
होता जीने का अंदाज
गहराई लिए
तो कभी अहसास
केवल सतहीपन का
दे जाता बहुत कुछ
जो होता दूर
हर व्यक्ति की पहुँच से
दीखता उस रस्सी सा
जिस तक पहुँचना नहीं सरल
पर उसी रस्सी पर नट को
बिना सहारे चलते देखा है
मैंने जिंदगी को करीबसे देखा है
यह है वृत्त बहुआयामी
उन सभी आयामों को
महसूस किया है
दी है अपनीप्रतिक्रिया भी
कोसों दूरअतिशयोक्ति से
पास बहुत सत्य के
उसी सत्य को आकार दे
प्यार में डूबे देखा है
जिंदगी जीने की कला
सीखने की चाहत को
संबल मिलते देखा है
जिंदगी को जिया है
भोगा है महसूस किया है
हर कोण की छुअन को
उन अनुभूतियों को
यादों में समेटा है
मैंने जिंदगी को भरपूर जिया है |
आशा


08 अप्रैल, 2012

पुस्तक समीक्षा "अनकहा सच "

डा.राम सिंह यादव द्वारा लिखी गयी :-
प्रेम  चिंतन और सकारात्मक सोच की छन्द मुक्त भेट -अनकहा सच
व्यक्तित्व के ना ना रूपों के कारण अभिव्यक्ति भी अलग अलग होती है |सहृदय व्यक्तित्व शब्द रूपी कूची से अनुभूति को उकेरता चला जाता है यह अभिव्यक्ति उसकी सृजनशीलता कहलाती है |लेकिन सवाल उठता है कि आखिर सर्जना के लिए कैसी अनुभूति चाहिये ?इसका सब से श्रेष्ठ जवाब श्री मती आशा सक्सेना ने "अनकहा सच "में बेहतर तरीके से दिया है |अपने ६९ बे वसंत पर जीवन की अनुभूतियाँ ,भावों की अभिव्यक्ति की छंद मुक्त भेट "अनकहा सच "में दी है |कहा जाए तो  कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी इस छंद मुक्त उपहार में प्रेम ,चिंतन, पर्यावरण ,प्रकृति ,धर्म ,आध्यात्म ,आदि सभी कुछ समाया है |इनके धैर्य ,साहस और ऊर्जा की जितनी प्रशंसा की जाए कम है |इस उम्र में एक जिम्मेदार नारी के सारे कर्तव्य पूर्ण करने के बाद इस प्रकार की काव्य रचना काबिले तारीफ है |
जीवन रूपी रंग मंच पर सब कुछ अभिनय करने के बाद भी कुछ अनकहा सच रह ही जाता है |कवियत्री ने अपना अनकहा सच कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है -
दो बोल प्यार के बोले होते /पाते निकट अपने
नए सपने नयनों में पलते/ना रहा होता कुछ भी अनकहा |
यदि अपने मन को टटोला होता चाहत की तपिश कभी समाप्त नहीं होती -
अपनी चाहत को तुम कैसे झुटला पाओगे
मेरी चाहत की ऊंचाई ना छू पाओगे कभी 
खुद ही झुलसते जाओगे उस आग की तपिश में |
उम्र  के आखिती पड़ाव पर यदि अपनों का साथ ना हो तो मन दुखी हो जाता है |मन में कसक गहरी होती है-
होती  है कसक
जब कोई साथ नहीं देता 
उम्र के इस मोड़ पर
 नहीं होता चलना सरल 
लंबी कतार उलझनों की 
पार पाना नहीं सहज |
अपने अतीत को कोई भला भुला पाया है अतीत पर यह देखिये -
जाने कहाँ खो गया 
दूर हो गया बहुत 
जब तक लौट कर आएगा 
बहुत देर होजाएगी 
ना पहचान पाएगा मुझे कैसे |
'प्रतिमा सौंदर्य की ' कविता महाप्राण सूर्य कान्त त्रिपाठी की कविता "वह तोडती पत्थर "की याद ताजा कर देती है |  एक मजदूर स्त्री के प्रति सौन्दर्यानुभूति भाव को बखूबी प्रकट किया है -
प्रातः से संध्या तक वह तोड़ती पत्थर 
भरी धूप में भी नहीं रुकती
गति उसके हाथों की |
जीवन की क्षण भंगुरता उन्हें "सूखी डाली "में दिखाई देती है -
एक दिन काटी जाएगी 
उसकी जीवन लीला 
हो जाएगी समाप्त
सोचती हूँ और कहानी क्या होगी 
इस क्षणभंगुर जीवन की  ?
मैं कुछ लिखना चाहती हूँ कविता अनकहा सच की आत्मा है |कहाजाए तो कुछ अतिशयोक्ति नहीं होगी -
अब मैं  लिखना चाहती हूँ 
आने वाली पीढ़ी के लिए 
मैं क्रान्तिकारी  तो नहीं
 पर सम्यक क्रान्ति चाहती हूँ
हूँ एक बुद्धिजीवी 
चाहती हूँ प्रगति देश की 
"एक  झलक "कविता हमारे देश की आत्मीन्य्ता ,प्रेम और एकता की ओअर इशारा करती है -
इतना प्यार तुम्हें मिलेगा 
डूब जाओगे अपनेपन में 
गर्व करोगे अतिथि हो कर 
और जब बापिस जाओगे 
फिर से लौटना चाहोगे 
बार बार इस देश में |
मृत्यु एक शाश्वत सत्य है -जो जन्मा है मृत्यु को अवश्य प्राप्त होता है -
होती अजर अमर आत्मा 
है स्वतंत्र जीवन उसका 
नष्ट कभी नहीं होता
शरीर नश्वर है 
जन्म है प्रारम्भ 
मृत्यु है अंत उसका |
"कुछ ना कुछ सीख देती है"रचना जीवन में उत्साह -ऊर्जा का संचार करने वाली आशा वादी रचना है -
सूरज  की प्रथम किरण 
भरती जीवन ऊर्जा से
कल कल बहता जल
सिखाता सतत आगे बढ़ना |
प्रत्येक  व्यक्ति का जीवन एक डायरी की तरह है  जिसमें अंकित होती हैं सुख -दुःख ,यादों की खट्टी मीठी बातें 
डायरी का हर पन्ना कोई मिटा नहीं सकता क्यों कि -
पेन्सिल से जो भी लिखा था 
रबर से मिट भी गया 
पर मन के पन्नों पर जो अंकित
उसे मिटाऊँ कैसे ?
प्रेम से ही दुनिया चलती है सबसे अच्छा प्रेम वही है जिसमें त्यागहै ,
विश्वास है ,समर्पण है |"प्रेम  ही जीवन है "में शायद कवियित्री यही कहना चाहती हैं -
इधर उधर भटकते हो 
सुकून कहाँ से पाओगे ? 
होता जीवन क्षण भंगुर
 बिना प्रेम अधूरा है |
श्री मती आशा लता सक्सेना को उनके स्वान्तःसुखाय -भाव समर्पण के लिए साधुवाद |"अनकहा सच "की एक खास विशेषता जो मैं कहना चाहूँगा कि इस काव्य संकलन की सारी कवितायेँ सरल,सरस ,और प्रवाहमय हैं |कविताओं में व्यर्थ के रूपक गढ़ने की कोशिश नहीं की गयी है |लयात्मकता कविता को बार बार पद्गने को बाध्य 
करती है| पुनःसरस ,पठनीय ,प्रवाहमय काव्य संकलन के लिए हार्दिक बधाई |समग्र रूप से आपकी कवितायेँ मन को प्रभावित करती हैं |










01 अप्रैल, 2012

झीना आवरण


वे व्यस्त नजर आते 
जीवन की आपाधापी मे 
अभ्यस्त  नजर आते 
मनोभाव छिपाने में 
आवरण से ढके 
सत्य स्वीकारते नहीं 
झूट हजारों के
सत्य स्वीकारते नहीं
हर वार से बचना चाहते
ढाल साथ रखते
व्यंग वाणों से बचने के लिए
सीधे बने रहने के लिए
यह तक भूल जाते
है आवरण बहुत झीना
जाने कब हट जाए
हवा के किसी  झोंके से
कितना क्या प्रभाव होगा
जब बेनकाब चेहरा होगा
सोचना नहीं चाहते
बस यूं  ही जिये जाते
अनावृत होते ही
जो कुछ भी दिखाई देगा
होगी फिर जो प्रतिक्रया
वह कैसे सहन होगी
है वर्तमान की सारी महिमा
कल को किसने देखा है
बस यही है अवधारणा
मनोभाव छिपाने की |


आशा