यह कैसा सुख कैसी
शान्ति
कहाँ नहीं खोजा इनको
मन नियंत्रित करना चाहा
भटकाव कम न हो पाया
यत्न अनेकों किये
पर दूरी कम ना हुई इनसे
किये कई अनुष्ठान
पूजन अर्चन
दिया दान मुक्त हस्त से
फिर भी दूर न रह पाया
पूर्वाग्रहों की चुभन से
प्रकृति का आँचल थामा
उनसे बचने के लिए
घंटों नदी किनारे बैठा
आनंद ठंडी बयार का
तब भी उठा नहीं पाया
देखे पाखी अर्श में
कलरव करते उड़ाते फिरते
कहीं कहीं दाना चुगते
चूंचूं चीं चीं में
उनकी
मन रम नहीं पाया
देखा नभ आच्छादित
चाँद और सितारों से
शान्ति तब भी न मिली
खोया रहा विचारों में
प्रसन्न वदन खेलते बच्चे
बातों से आकर्षित करते
पर वह तब भी न मिला
जिस की तलाश में भटक रहा
अंतस में चुभे शूल
चाहे जब जाने अनजाने
दे जाते दर्द ऐसा
जिसकी दवा नहीं कोई
बोझ दिल का बढ़ जाता
उलझन भरी दुनिया में
सफलता या असफलता
या सुख दुःख की नौक झोंक
दिखाई दे जाती चहरे पर
तब “है पूर्ण सुखी “की अवधारणा
कल्पना ही नजर आई
उलझन सुलझ नहीं पाई |
आशा