25 सितंबर, 2012

हताशा



असफलता और बेचारगी
बेरोजगारी की पीड़ा से 
वह भरा हुआ हताशा से
है असंतुष्ट सभी से
दोराहे पर खडा
 सोचता किसे चुने
सोच की दिशाएं
विकलांग सी हो गयी
गुमराह उसे कर गयी
नफ़रत की राह चुनी
कंटकाकीर्ण सकरी पगडंडी
गुमनाम उसे कर गयी
तनहा चल न पाया
साये ने भी साथ छोड़ा
उलझनो में फसता गया
जब मुड़ कर पीछे देखा
बापिसी की राह न मिली
बीज से  विकसित 
पौधे नफ़रत के
दूर सब से ले आए
फासले इतने बढ़े कि
अपने भी गैर हो गए
हमराही कोई न मिला
अकेलापन खलने लगा 
अहसास गलत राह  चुनने का
अब मन पर हावी हुआ
सारी राहें अवरुद्ध पा
टीस इतनी बढ़ी कि
खुद से ही नफ़रत होने लगी |





24 सितंबर, 2012

अनुरोध



बीती बातें मैं ना भूला
कोशिश भी की मैंने
इंतज़ार मैं कब तक करता
गलत क्या किया मैंने |
   पहले मुझे अपना लिया
    फिर निमिष में बिसरा दिया
   अनुरोध कितना खोखला
    प्रिय आपने यह क्या किया |
है आज बस अनुरोध इतना
घर में आ कर रहिये
रूखा सूखा जो मैं खाता
पा वही संतुष्ट रहिये |
आशा

22 सितंबर, 2012

पहरा

क्षणिका :-
विचारों की 
सरिता की गहराई 
 नापना चाहता 
पंख फैला नीलाम्बर में 
उड़ना चाहता 
तारों  की गणना
करना भी चाहता
पर चंचल मन
 स्थिर नहीं रहता
 उस पर भी
रहता पहरा |
आशा

19 सितंबर, 2012

शिकायत


है मुझे शिकायत तुमसे
दर्शक दीर्घा में बैठे
आनंद उठाते अभिनय का
सुख देख खुश होते
दुःख से अधिक ही
द्रवित हो जाते
 जब तब जल बरसाते
अश्रु पूरित नेत्रों से
आपसी रस्साकशी देख 
उछलते अपनी सीट से
फिर वहीँ शांत हो बैठ जाते
जो भी प्रतिक्रिया होती
अपने तक ही सीमित रखते
मूक दर्शक बने रहते
अरे नियंता जग के
यह कैसा अन्याय तुम्हारा  
तुम अपनी रची सृष्टि के
कलाकारों को देखते तो हो
पर समस्याओं से उनकी
सदा दूर रहते
उन्हें सुलझाना नहीं चाहते
बस मूक दर्शक ही बने रहते |
क्या उनका आर्तनाद नहीं सुनते
 ,या जानबूझ कर अनसुनी करते
या  मूक बधिर हो गए हो
क्या तुम तक नहीं पहुंचता
कोइ समाचार उनका
 हो निष्प्रह सम्वेदना विहीन
क्यूँ नहीं बनते सहारा उनका |
आशा






17 सितंबर, 2012

सिद्धि विनायक (गणेश चतुर्थी )

  बहुत पुरानी बात है |राजा हरिश्चंद्र के राज्य में एक ब्राह्मण  रहता था |उसका नाम ॠश्य शर्मा था |उसके एक पुत्र हुआ पर वह उसको खिला भी न सका और अकाल मृत्यु को प्राप्त होगया |
            अब बच्चे के लालनपालन की जिम्मेदारी उसकी पत्नी पर आ गयी |वह आर्थिक रूप से बहुत कमजोर थी और भिक्षा मांगकर अपना औरअपने बच्चे का भरण पोषण करती थी |
       वह रोज गोबर से बनी गणपति की प्रतिमा का पूजन करती थी और  बहुत श्रद्धा रखती थी |एक दिन बच्चे ने उस प्रतिमा को खिलोना समझ कर अपने गले में लटका लिया और खेलता खेलता बाहर निकल गया |
         एक कुटिल कुम्हार की बहुत दिनों से उस पर नजर थी |उसने बच्चे को पकड़ कर जलते हुए आवा में डाल दिया |इधर माता का पुत्र वियोग में बुरा हाल था |वह गणपति का पूजन कर विलाप करने लगी और पुत्र की रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगी |
दूसरे दिन जब कुम्हार ने आवा खोला तब उसने बच्चे को घुटने घुटने पानी में खेलते हुए पाया |कुम्हार को बहुत मानसिक ग्लानि  हुई |उसे अपनी गलती का अहसास हो गया था |वह रोता रोता राजा के पास पहुंचा और अपने गुनाह को कबूल किया |
           वह बोला ,"राजन मुझे कुछ मिट्टी के बर्तन जल्दी से पकाने थे आवा जलने का नाम न लेता था |एक तांत्रिक ने बताया कि यदि किसी बच्चे की बलि गुप्त रूप से चढ़ाओगे तो तुम्हारी समस्या का निदान हो जाएगा |तभी से बालक तलाश रहा था और विधवा के इस बच्चे को आवा में ड़ाल दिया था "|पर जब सुबह बालक को आवा में खेलते देखा तो भय के मारे यहाँ आ गया "|
राजा बहुत न्याय प्रिय था उसने अपने आमात्य को भेज कर सारी सत्यता की जानकारी प्राप्त की और ब्राह्मणी को बुला कर बच्चा उसे सौंप दिया |पर वह आश्चर्य चकित था कि बालक जलने की जगह पानी में कैसे खेल रहा था |बच्चे की माँ से  प्रश्न किया कि क्या कोई  जादू टोना किया था जो बालक पर आंच तक नहीं आई |
    अपने बच्चे को पा कर ब्राह्मणी  बहुत प्रसन्न थी और राजा को बहुत बहुत आशीष देते हुए बोली "हे राजन मैंने कोई जादू नहीं किया  बस रोज विघ्न हरता सिद्धि विनायक की सच्चे मन से पूजा करती हूँ और चतुर्थी का व्रत  रखती हूँ |शायद उसी का फल आज मुझे मिला है "
        राजा बहुत अभिभूत हुआ और ब्राह्मणी  से कहां ,"तुम बहुत पुण्यात्मा और धन्य हो तुमने हमें सही राह दिखाई है अब मैं और मेरी प्रजा भी सिद्धि विनायक समस्त विघ्न के हरता का विधिवत पूजन अर्चन करेंगे  "
       तभी से गणेश चतुर्थी का व्रत किया जाता है | यह  समस्त सिद्धि देने वाला  व्रत है |
आशा 




14 सितंबर, 2012

व्यथित



-धधकती आग ढहते मकान
कम्पित होती पृथ्वी  
कर जाती विचलित
मचता हाहाकार
जल मग्न गाँव डूबते धरबार
हिला जाते सारा मनोबल
सत्य असत्य की खींचातानी
लगने लगती बेमानी
करती भ्रमित झझकोरती
क्षणभंगुर जीवन की व्यथा
छल छिद्र में लिप्त खोजता अस्तित्व
हुतात्मा सा जीता इंसान
कई विचार मन में उठते
आसपास जालक बुनते
मन में होती उथलपुथल
हूँ संवेदनशील  जो देखती
उसी में खोजती रह जाती हल
विचारों की श्रंखला रुकती नहीं
कहीं विराम नहीं लगता
हैं सब नश्वर फिर भी
मन विचलित होता जाता
जाने क्यूं व्यथित होता |
आशा