तुम जाना उस देश
पहुंचाना उसका सन्देश
वे तो भूल गए
ना ही पत्र लिखा
ना दिया कोई सन्देश
पलक पावड़े बिछाए रही
विरहन मन को बहलाए रही
पर कब तक खुद को भुलावे में रखती
मन में खुद को तोल रही
क्या खता उसकी रही
जो बाँध न सकी उनको
अपने प्रेमपाश में
कहाँ कमी रह गई उस बंधन में
मन में रहा बोझ
है यह कैसी विडंबना
कोई नहीं समझ पाया
शायद है यही नीयती का फैसला
इससे कोई न बच पाया
यहीं सभी झुक जाते हैं
समदर्शी की सत्ता के आगे
अपने कर्मों का हिसाब
इसी लोक में हो जाता है
कहीं और नहीं जाना पड़ता |
आशा