09 जून, 2020

संग्राम


दिल और दिमाग
हैं तो सहोदर
एक साथ रहते है पर
 संग्राम छिड़ा है  दौनों में |
आए दिन की बहस
 नियमों का उल्लंधन
एक ने चाहा दूसरे ने नकार दिया
हो गई है आम बात  |
कभी दिल की जीत  भारी
 कभी मस्तिष्क की जीत हारी
हार जीत के खेल में
  तालमेल नहीं है  दौनों में |
 नजदीकियां बढ़ते  ही
 नया  विवाद जन्म ले लेता है
फिर से वही बहस
 आए दिन की तकरार
उसमें  उलझे  रहते है दौनों |
  संग्राम थमने का
नाम ही नहीं लेता
  दौनो धरती के हुए  दो ध्रुब
या धरा और  आकाश |
|प्रेम प्यार से  एक साथ
 मिलजुल कर रह नहीं पाते
मिलते ही विरोध दर्शाते  
अपनी दुनिया में जीना चाहते |
 बहुत दुखी हूँ
 किस तरह उनमें तालमेल बनाऊ
 कैसे मध्यस्तता करूं  
 इस  संग्राम का अंत करूं |
 भूले सामंजस्य बना कर
 रहने का मूल मन्त्र
खुद भी रहते परेशान
और दूसरे की भी चिंता नहीं |
 हुए  ऐसे  आत्म केन्द्रित
दो चक्की के पाटों के बीच फंसी हूँ
मेरा क्या होगा कब थमें संग्राग
अब तो यह तक नहीं सोच पाती |
आशा


08 जून, 2020

विचलन मन का


 

 आशा  के  पालने  में झूला
ऊंची से ऊंची पैंग बढ़ाई   
मन को फिर भी चैन न आया
तेरा मन क्यूँ घबराया?
निराशा ने डेरा डाला
 तेरे मन के आँगन में
शायद इसी लिए उससे
 तेरा मन  भाग न पाया |
यही विचलन मन में
ठहराव  नहीं  जीवन में  
 किसी निष्कर्ष पर पहुँच  मार्ग
प्रशस्त भी न हो पाया |
कैसे निकले मन की कशमकश से
उलझनों की दुकान से
कहीं तो शान्ति के दर्शन हों
ऊंची पैंगों  का कुछ तो प्रभाव हो |
एक ही आशा लगाए हूँ
बारह वर्ष में तो
घूरे के भी दिन फिरते
फिर तेरे   नहीं क्यूँ  ?
ईश्वर  सब देख रहा है
तुझसे क्यूँ  है  दूरी  उसकी
वरदहस्त जब सर पर होगा 
तेरी निराशा का कोहरा छटेगा |
आशा

06 जून, 2020

तूफान


सागर ने रौद्र रूप धारण किया
तेज गति से तूफान उठा   
आगे बढ़ा टकराया तटबंध से
  पास के घर ताश के पत्तों से  ढहे  
जब मिलने आया तूफान  उनसे |
रहने वाले हुए स्तब्ध  कुछ सोच नहीं पाए
 दहशत से उभर नहीं पाए
देखा जब उत्तंग उफनती
लहरों को टकराते तट से |
गति थी इतनी तीव्र तूफान की  
ठहराव की कोई गुंजाइश न थी
पर टकराने से गति में कुछ अवरोध आया
 बह कर आए वृक्षों ने किया  मार्ग अवरुद्ध |
  ताश के पत्तों से बने बहते मकान
  कितनी मुश्किल से ये बनाएगे होंगे
कितना कष्ट सहा होगा मकान बनाने में
उसे सजाने सवारने में |
प्रकृति भी कितनी निष्ठुर है
ज़रा भी दया नहीं पालती   
थोड़ा भी समय नहीं लगता
 सब मटियामेट करने में |
बरबादी का यह आलम देखा नहीं जाता
आँखें भर भर आती हैं यह दुर्दशा देख
जाने कब  जीवन पटरी  पर लौटेगा फिर से  
 सोच  उदासी छा जाती है मन में |
आशा