26 अक्तूबर, 2020

इस वर्ष का दशहरा

 

 


                                                              कोविद नाईनटीन का रावण

 जला दशहरा मैदान में

पर ज्यादा लोग देख नहीं

 पाए इस आयोजन को |

घर से ही दुआ की

 अब फिर पलट कर ना आए कोविद 

छोटी सी सवारी आई थी

 रावण के  दहन को |

बिना धूमधाम के चुपके से

 रावण दहन कर चली गई

बच्चे मेला देखने की जिद्द करते रहे

 पर कोई नहीं ले गया |

कुछ रोए कुछ बहकावे में आए

 पर वहां पहुँच ना पाए

अगले साल का वादा किया

 जैसे तैसे उनसे पीछ छुड़ाया |

 न जाने कल क्या  होगा किसे पता

 दुनिया तो आज पर जीती है

ऐसा उदासी भरा पहले  हमने

 तो कभी देखा नहीं ऐसा त्यौहार |

बस बीती  यादों में खोए रहे

और आज के अवसर

 को दुखी मन से

भूलने की कोशिश में लगे रहे |

आशा  

 

 

        

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


 

 

 

 

 

 

 

 

21 अक्तूबर, 2020

अब भूल समझ में आई

 


 

 तुम क्यूँ भूले 

वे बचपन की यादें 

जब साथ मिलकर 

खेलते खाते थे |

लंबित गृह कार्य

 किया करते थे

जब तक पूर्ण ना हो 

भूख प्यास  सब

 भूल जाते थे |

तब कितना प्रवल

 अवधान था 

प्रलोभन का

 नामों निशाँ न था |

तुम रोज अपना  काम करके 

मेरा गृह कार्य

 कर दिया करते थे 

तुम्हीं ने बिगाड़ी थी

 डाली थी आदत मेरी

  परजीवी हो जाने की |

खुद कार्य  करने की

 जरूरत न समझी कभी 

कभी आत्मनिर्भर हो न पाई 

किसी की बैसाखी सदा चाही 

ज़रा से काम के लिए ही |

अब भूल समझ में आई 

पर अब बहुत देर हो गई  है

अपना कार्य स्वयं  करने की

 आदत जो छूट गई है 

 अब पश्च्याताप से क्या लाभ 

 वे दिन लौट तो न पाएंगे |

आशा

 




17 अक्तूबर, 2020

मेरा मन हो विशाल


 

                                                          ना कभी पलट कर देखा ना 

                                                                कभी  शक को पाला 

                                                    किया वही जो मन को  भाया 

                                                           इससे ना इनकार किया |

                                                          सही गलत का ख्याल 

                                                      मन को भयभीत नहीं करता

जो सोचा सही सोचा
पर किसी का ख्याल
मन से न निकाला |
प्यार को एक तरफ रखा
वास्तविकता से परे
हर समय मन को
उलझनों से दूर रखा |
है अरमां यही मेरा
किसी से न हो कर दूर
रहूँ सबके करीब आकर
मन से ही सही
हो यह भी ठीक ही
मेरा मन हो विशाल
खुशी से हो निहाल |
आशा

16 अक्तूबर, 2020

समदर्शी

 



ना चाह ना किसी की आस की

जब देखा आसपास बड़ी निराशा हुई

मन पर गिरी गाज जब भी

 पंख फैला उड़ना चाहा |

चेहरा बुझा बुझा सा हुआ

अरमानों का निकला जनाजा

आशा निराशा  में बदली

किसी खोज का अंत न हुआ |

थोड़े समय के लिए ही सही

पर मन की बेचैनी कम न हुई

खूब खाया घूमें घामें पर

प्रभाव कुछ न ख़ास हुआ |

हर बार मन ने नियंत्रण खोया

फिर भी रही तसल्ली

बहुत खोया पर कुछ तो पाया

यहीं मुझे भगवान् नजर आया |

यूँ तो कभी दिखाई न दिया

पर  प्रभू का  समदर्शी नाम

 यूँ ही नहीं हुआ

बहुत सार्थक नाम दिया भक्तों ने

दिल से उसे अपनाया |

आशा