28 अक्तूबर, 2020

सुबह की धूप


 

                 प्रातः सूर्य देव चले देशाटन को

 हो कर अपने रथ पर सवार

बाल रश्मियाँ बिखरी  हैं हर ओर  

अम्बर हुआ सुनहरा  लाल  |   

 खिली धूप नीलाम्बर में मन भावन

कोहरा छटा है आसमान का  रंग निखरा है 

बादल ने विदा ली है

अब  बहार आई है

पंछी भी हुए चंचल  सचेत

 उड़ते फिरते  करते   किलोल

इस डाल से उस डाल पर |

पेड़ो पर छाई हरियाली

फूल खिले हैं डाली डाली

बगिया महक  रही है सारी

रंग बिरंगे पुष्पों की सुगंघों से |

बिछी  श्वेत पुष्प शैया पारिजात वृक्ष के नीचे

 देखते ही बनती है छटा उसकी
मन  करता वहीं बैठूं उस बगिया में   

दृष्टि पटल पर  समेट उसे  हृदय में रखूँ  

सुबह की धूप का आनंद उठाऊँ |

बच्चे खेलते वहां  झूलते इन झूलों पर

तरह तरह के करतब दिखाते

ऊपर से नीचे आते धूम मचाते

नीचे से ऊपर जाते  फिसल पट्टी से   

खुश होते किलकारी भरते |

                             आशा

 

26 अक्तूबर, 2020

इस वर्ष का दशहरा

 

 


                                                              कोविद नाईनटीन का रावण

 जला दशहरा मैदान में

पर ज्यादा लोग देख नहीं

 पाए इस आयोजन को |

घर से ही दुआ की

 अब फिर पलट कर ना आए कोविद 

छोटी सी सवारी आई थी

 रावण के  दहन को |

बिना धूमधाम के चुपके से

 रावण दहन कर चली गई

बच्चे मेला देखने की जिद्द करते रहे

 पर कोई नहीं ले गया |

कुछ रोए कुछ बहकावे में आए

 पर वहां पहुँच ना पाए

अगले साल का वादा किया

 जैसे तैसे उनसे पीछ छुड़ाया |

 न जाने कल क्या  होगा किसे पता

 दुनिया तो आज पर जीती है

ऐसा उदासी भरा पहले  हमने

 तो कभी देखा नहीं ऐसा त्यौहार |

बस बीती  यादों में खोए रहे

और आज के अवसर

 को दुखी मन से

भूलने की कोशिश में लगे रहे |

आशा  

 

 

        

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


 

 

 

 

 

 

 

 

21 अक्तूबर, 2020

अब भूल समझ में आई

 


 

 तुम क्यूँ भूले 

वे बचपन की यादें 

जब साथ मिलकर 

खेलते खाते थे |

लंबित गृह कार्य

 किया करते थे

जब तक पूर्ण ना हो 

भूख प्यास  सब

 भूल जाते थे |

तब कितना प्रवल

 अवधान था 

प्रलोभन का

 नामों निशाँ न था |

तुम रोज अपना  काम करके 

मेरा गृह कार्य

 कर दिया करते थे 

तुम्हीं ने बिगाड़ी थी

 डाली थी आदत मेरी

  परजीवी हो जाने की |

खुद कार्य  करने की

 जरूरत न समझी कभी 

कभी आत्मनिर्भर हो न पाई 

किसी की बैसाखी सदा चाही 

ज़रा से काम के लिए ही |

अब भूल समझ में आई 

पर अब बहुत देर हो गई  है

अपना कार्य स्वयं  करने की

 आदत जो छूट गई है 

 अब पश्च्याताप से क्या लाभ 

 वे दिन लौट तो न पाएंगे |

आशा