22 नवंबर, 2010

तुम मुझे ना पहले समझे

तुम मुझे ना पहले समझे ,
और न कभी समझ पाओगे ,
हर बात का कुछ अर्थ होता है ,
अर्थ के पीछे छिपा ,
कोई सन्देश होता है ,
वह भी यदि ना समझ पाए ,
तो क्या फायदा बहस का ,
बिना बात तनाव झेलने का ,
इसी तरह यदि रहना था ,
नदी के दो किनारों की तरह ,
जो साथ तो चलते हैं ,
पर कभी मिल नहीं पाते ,
इसका दुःख नहीं होता ,
पर है यह फर्क सोच का ,
मुझे बार-बार लगता है ,
है इतनी दूरी आखिर क्यूँ ?
यह दूरी है या कोई मजबूरी ,
ऐसा भी यदि सोचा होता ,
अपने को दूसरे की जगह ,
रखा होता फिर विचारा होता ,
तब शायद समझ पाते ,
प्यार क्या होता है ?
होती है भावना क्या ?
साथ-साथ रहना ,
धन दौलत में धँसे रहना ,
क्या यही ज़िंदगी है ?
भावना की कद्र ना कर पाये ,
तो क्या लाभ ऐसी ज़िंदगी का ,
मैं जमीन पर फैला पारा नहीं ,
जिसे उठाना बहुत कठिन हो ,
हूँ हाड़ माँस का इंसान ,
जिसमें दिल भी धड़कता है ,
मुझे समझ नहीं पाते ,
दिल की भाषा पढ़ नहीं पाते ,
तुम कैसे न्याय कर सकते हो ,
अपने साथ या मेरे साथ,
हो कोसों दूर भावनाओं से ,
अपनी बात पर अड़े रहते ,
है कहाँ का न्याय यह ,
कभी सही गलत समझा होता ,
कुछ झुकना भी सीखा होता ,
तब शायद कोई हल होता ,
किसी की क्या समस्या है ,
यदि दूर उसे नहीं कर सकते ,
दो बोल सहानुभूति के भी ,
मुँह से यदि निकल पाते ,
कुछ बोझ तो हल्के होते ,
पर शायद मेरा सोच ही है गलत ,
नागरिक दूसरे दर्जे का ,
पहली पंक्ति में आ नहीं सकता ,
अपना अधिकार जता नहीं सकता ,
वह सोचता है क्या ,
शब्दों में बता नहीं सकता |


आशा

10 टिप्‍पणियां:

  1. मन का दर्द खूबसूरती से बताया है
    शुभकामनाएं

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  2. स्त्री के जीवन का अधिकांश समझौते में ही बीत जाता है। अफसोसजनक!

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  3. जितनी बार आपकी कवितायेँ पढ़ती हूँ कुछ-न-कुछ सीखने को ही मिलता है, और कई बार तो लगता है जैसे यहीं-कहीं की कहानी है...

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  4. नागरिक दूसरे दर्जे का ,
    पहली पंक्ति में आ नहीं सकता ,
    अपना अधिकार जता नहीं सकता ,
    वह सोचता है क्या ,
    शब्दों में बता नहीं सकता |

    हमेशा ही नारी को दूसरा दर्जा दिया जाता है ...उसके इस दर्द को बखूबी लिखा है ...

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  5. आपकी रचनाओं के संदेश प्रेरक होते हैं।
    इस बार भी।

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  6. बड़ी प्रखरता से मन की उथल पुथल को अभिव्यक्ति दी है ! शायद घर घर की यही कहानी है ! आम नारी के मनोभावों को खूबसूरती के साथ बखाना है ! बधाई एवं शुभकामनायें !

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  7. दिल में छुपे दर्दको बाखूबी उकेरा है आपने ... ये सच है जीवन का जो धन की भाषा समझता है ...प्रेम की भाषा नही समझ पाता ...

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  8. दिल के दर्द को बखूबी उभारा है ... बहुत सुन्दर कविता !

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