
हो रही धरती  बंजर
उभरी हैं दरारें वहाँ 
वे दरारें नहीं केवल 
है सच्चाई कुछ और भी 
रो रहा धरती का दिल 
फटने लगा आघातों से 
वह सह नहीं पाती 
भार और अत्याचार 
दरारें तोड़ रही मौन उसका 
दर्शा रहीं मन की कुंठाएं 
क्या अनुत्तरित प्रश्नों का हल 
कभी निकल पाएगा 
प्रकृति से छेड़छाड़ की 
सताई  हुई धरा  
है अकेली ही नहीं 
कई और भी हैं 
 हर ओर असंतुलन है 
जो जब चाहे नजर आता है 
झरते बादल आंसुओं से 
बूंदों के संग विष उगलते 
हुआ प्रदूषित जल नदियों का 
गंगा तक न बच पाई इससे 
कहीं कहर चक्रवात का 
कहीं सुनामी का खतरा 
फिर भी होतीं छेड़छाड़ 
प्रकृति  के अनमोल खजाने से 
हित अहित वह नहीं जानता 
बस दोहन करता जाता 
आज की यही खुशी 
कल शूल बन कर चुभेगी
पर तब तक
बहुत देर हो चुकी होगी |
आशा


