कल्पना छोटे से
घर की
जाने कब से थी मन
में
सपनों में दिखाई
देता वह
और आसपास
की हरियाली
जहां बिताती
घंटों बैठ
कापी कलम किताब ले
पन्ने भावों के भरती
कल्पना साकार
करती
पर सपना सपना ही
रह गया
कभी पूर्ण कहीं
हुआ
व्यवधान नित नए
आए
विराम उनका न लगा
रुक नहीं पाए
ऊपर से महंगाई के
साए
दो कक्ष भी पूरे
न हुए
घर अधूरा रहा
प्रहार मन पर हुआ
यदि एक ही
लक्ष होता
मन नियंत्रित
होता
तभी स्वप्न साकार
होता
केवल कल्पना में
न जीता |
आशा
आ० सुंदर भाव प्रस्तुत करती आपकी बढ़िया कृति , धन्यवाद
जवाब देंहटाएं॥ जय श्री हरि: ॥
धन्यवाद आशीष जी
हटाएंबढ़िया प्रस्तुति--
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीया-
धन्यवाद टिप्पणी हेतु |
हटाएंuttaam bhav
जवाब देंहटाएंधन्यवाद नीलिमा जी |
हटाएंवाह बहुत खूब
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अंजू जी
हटाएंसुंदर कल्पना ! यथार्थ की तो पूर्ण हो चुकी वर्षों पहले ! अब यह स्वप्न वाली कल्पना भी साकार हो जाये यही शुभकामना है ! हा हा हा !
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद |
हटाएंसूचना हेतु धन्यवाद सर
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद |
हटाएंधन्यवाद ब्लॉग पर आने के लिए |
जवाब देंहटाएं