दो तोते बैठे 
 वृक्ष के तने पर 
आपस में बतियाते 
वर्तमान पर चर्चा करते |
उदासी का चोला ओढ़े 
यादे अपनी ताजा करते 
पहले कितनी हरियाली थी 
हमजोलियों की टोलियाँ थीं |
बड़े पेड़ कटते गए 
मित्र तितरबितर हो गए 
आधुनिकता की बली चढ़ गए 
मानव ही बैरी हो गया 
सृष्टि के संतुलन का |
हरियाली का नाश किया 
सीमेंट लोहे  का जंगल उगाया 
यही कारण हो गया 
हम सब की बदहाली का  |
रैन बसेरा नष्ट हो गया 
आज है यह हाल
 कल न जाने क्या होगा 
अभी बैठे हैं यहाँ 
कल न जाने कहाँ होंगे |
आशा 

आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (16.05.2014) को "मित्र वही जो बने सहायक " (चर्चा अंक-1614)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार सर |
जवाब देंहटाएंसार्थक सदेश देती बेहतरीन प्रस्तुति ! पंछियो की इस व्यथा को हम मानव कभी समझ नहीं पाते ! एक सम्वेदनशील रचना !
जवाब देंहटाएंअरे भाई हिन्दी में टिप्पणी कैसे |
हटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद |
अपने स्वार्थ में अंधा हो गया है इंसान !
जवाब देंहटाएंआपको टिप्पणी हेतु बहुत बहुत धन्यवाद |
हटाएंआशा
जब तोते इंसानों की करनी को भोगने पर मजबूर होते हैं तब उनका रोना एक संवेदनशील इंसान ही सुन सकता है
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया सन्देश
धन्यवाद कविता जी |
हटाएंसार्थक संदेश देती कविता।
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद |
हटाएंप्रकृति के संतुलन को कायम रख कर ही हम अपने आस्तित्व को कायम रख सकेंगे.
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद |
जवाब देंहटाएंउम्दा रचना और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@आप की जब थी जरुरत आपने धोखा दिया (नई ऑडियो रिकार्डिंग)