खँडहर में कब तक रुकता
आखिर आगे तो जाना ही है
बिना छाया के हुआ बेहाल
बहुत दूर ठिकाना है
थका हारा क्लांत पथिक
पगडंडी पर चलते चलते
सोचने को हुआ बाध्य
पहले भी वह जाता था
पर वृक्ष सड़क किनारे थे
उनकी छाया में दूरी का
तनिक भान न होता था
मानव ने ही वृक्ष काटे
धरती को बंजर बनाया
कुछ ही पेड़ रह गए हैं
वे भी छाया देते नहीं
खुद ही धूप में झुलसते
लालची मानव को कोसते
जिसने अपने हित के लिए
पर्यावरण से की छेड़छाड़
अब कोई उपाय न सूझता
फिर से कैसे हरियाली आए
पथिकों का संताप मिटाए |
आशा
बेहतरीन प्रस्तुति आशा दी
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिये|
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन नमन आज़ादी के दीवाने वीर सावरकर को : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंसूचना के लिए आभार सर |
बेहतरीन रचना ,सादर नमस्कार
जवाब देंहटाएंधन्यवाद कामिनी जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
३ जून २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सूचना हेतु आभार जी |
हटाएंसच है ! अपनी नासमझी का मूल्य हर इंसान को चुकाना होगा
जवाब देंहटाएंसडकों के किनारे सुनसान रास्तों पर हरे छायादार पेड़ों को लगाना होगा ! !