बंधे  हाथ दोनो 
समाज के नियमों से 
 है बंधन इतना सशक्त  
तिलभर भी  नहीं  खसकता 
 कोई इससे बच  नहीं पाता 
यदि बचना भी चाहे तो
यदि बचना भी चाहे तो
वह नागपाश सा कसता  जाता 
यदि कोई इससे भागना  चाहता 
भागते भागते हार जाता
भागते भागते हार जाता
पर कभी यह प्यारा भी लगता 
सामाजिक बंधन बने हुए
 कुछ नियमों से 
 हित छिपा होता इनमें
 समाज के उत्थान का 
हूँ एक सामाजिक प्राणी 
वहीं मुझे जीना मरना है 
तभी तो भाग नहीं पाती इससे 
खुद ही बाँध लिया  है
 इसमें अपने को   
अपनी मन मर्जी से  |
आशा 

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में " गुरूवार 22 अगस्त 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार मीना जी |
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 22/08/2019 की बुलेटिन, " बैंक वालों का फोन कॉल - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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हटाएंसूचना हेतु आभार सर |
कुछ बंधन इतने प्यारे होते हैं कि मन आजादी चाहता ही नहीं...
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना!
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंमेरी रचना पर टिप्पणी के लिये वाणी जी |
मर्जी से बांधा हुआ बंधन भी एक तरह की आजादी है
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंटिप्पणी के लिए धन्यवाद अनीता जी |
सत्य है ! मनुष्य बाह्य श्रन्खलाओं की अपेक्षा अपने मन की श्रंखलाओं से ही अधिक जकड़ा होता है ! सुन्दर रचना !
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